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अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि
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जाने नहीं जा सकते। (४) उत्तिंगसूक्ष्म अर्थात् कीडानगर, जिसमें सूक्ष्म चींटिया तथा अन्य सूक्ष्म जीव रहते हैं। (५) पनकसूक्ष्म काई या लीलन-फूलन, यह प्रायः वर्षाऋतु में भूमि, काष्ठ और उपकरण आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली पांच रंग की लीलन-फूलन हो जाया करती है। इसमें भी जीव सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते। (६) बीजसूक्ष्म सरसों, शाल आदि जीवों के अग्रभाग (मुखमूल) पर होने वाली कणिका, जिससे अंकुर उत्पन्न होता है, जिसे लोक में 'तुषमुख' भी कहते हैं। (७) हरितसूक्ष्म तत्काल उत्पन्न होने वाला हरितकाय जो पृथ्वी के समान वर्ण वाला तथा दुर्विज्ञेय (जिसका झटपट पता नहीं लगता, ऐसा)। (८) अण्डसूक्ष्म मधुमक्खी, चींटी, मकड़ी, छिपकली, गिलहरी और गिरगिट आदि के सूक्ष्म अंडे जो स्पष्टतः ज्ञात नहीं होते। ये उपर्युक्त आठ प्रकार के सूक्ष्म हैं, जिनका ज्ञपरिज्ञा से ज्ञान होने पर ही प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनकी हिंसा का परित्याग करने एवं यतना करने का प्रयत्न किया जाता है। स्थानांग में उत्तिंगसूक्ष्म के बदले लयनसूक्ष्म है, जिसका अर्थ है-जीवों का आश्रयस्थान। दोनों का अर्थ एक है, केवल शब्द में अन्तर है।
सर्वजीवों के प्रति-दयाधिकारी कौन और किन गुणों से ? शिष्य के द्वारा किये गये प्रश्न में यह भाव गर्भित है कि जिनके जाने बिना साधक सर्वजीवों के प्रति दया का अधिकारी बन ही नहीं सकता, इसलिए उनका जानना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उनके जानने पर ही साधक के द्वारा प्रत्येक क्रिया करते समय उन जीवों की रक्षा, दया या यतना की जा सकती है।'
- प्रस्तुत गाथा में त्रस और स्थावर दोनों राशियों में से जो सूक्ष्म शरीर वाले जीव हैं, उनका उल्लेख किया गया है, ताकि दया के अधिकारी अप्रमत्त रह कर उनकी रक्षा या यतना कर सकें। प्रतिलेखन, परिष्ठापन एवं सर्वक्रियाओं में यतना का निर्देश
४०५. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पाय-कंबलं ।
सेजमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ १७॥
६.
(क) सिणेहसुहुमं पंचपगारं, तं-ओसा हिमए महिया करए हरितणुए । पुष्फसहुमं नाम बड-उंबरादीनि संति पुष्पाणि,
तेसिं सरिसवन्नाणि दुव्विभावणिज्जाणि ताणि सुहुमाणि । पाणसुहुमं अणुद्धरी कुंथू जा चलमाणा विभाविजइ, थिरा दुब्विभावा । उत्तिंगसुहुमं कीडिया घरगं, जे वा तत्थ पाणिणो दुव्विभावणिज्जा । पणगसुहुमं नामं पंचवन्नो पणगो वासासु भूमिकंट्ट-उवगरणादिसु तद्दव्व समवन्नो पणगसुहुमं । बीयसुहुमं नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा बीयसुहुमं । सा ण लोगेण उ सुमहुत्ति भण्णई । हरितसुहुमं णाम जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवण्णं दुविभावणिजं तं हरियसुहुमं।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २७८ (ख) 'उदंसंडं महुमच्छिगादीण । कीडिया-अंडगं-पिपीलिया अंडं, उक्कलिं अंडलूयापडागस्से, हलियंडं बंभणियाअंडगं, सरडिअंडगं-हल्लोहल्लि अंडं ।'
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १८८ (क) सव्वभावेण-लिंग-लक्खणभेदविकप्पेणं । अहवा सव्वसभावेण ॥
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १८८ (ख) सर्वभावेन शक्त्यनुरूपेण स्वरूप-संरक्षणादिना ।
-हारि.वृत्ति, पत्र २३० (ग) सव्वपगारेहिं वण्णसंठाणाईहिं णाऊणं ति, अहवा ण सव्वपरियाएहिं छउमत्थो सक्केइ उवलभिउं किं पुण जो जस्स
विसयो ? तेण सव्वेण भावेण जाणिऊणं ति । (क) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७४८,७५१,७५३ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ.१०५