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दशवैकालिकसूत्र
[२७०] (उक्त आचार के) अठारह स्थान हैं। जो अज्ञ साधु इन अठारह स्थानों में से किसी एक का भी विराधन करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥
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[(वे अठारह स्थान ये हैं— ) छह व्रत (पांच महाव्रत और छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत ), छह काय (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस, इन षड् जीवनिकायों सम्बन्धी संयम करना), अकल्प्य (अग्राह्य भक्त - पान आदि पदार्थों का परित्याग करना), गृहस्थ के बर्तन ( भाजन) में आहार- पानी ग्रहण - सेवन का त्याग करना, पर्यंक (लचीले पलंग आदि पर न सोना, न बैठना ), निषद्या (गृहस्थ के घर या आसन आदि पर न बैठना ), स्नान तथा शरीर की शोभा (विभूषा का त्याग करना । ) ]
विवेचन—प्रवक्ता के योग्य एवं श्रेष्ठ गुण— धर्मोपदेशक, शास्त्रसम्मत समाधानदाता तथा प्रवक्ता यदि योग्य गुणों से सम्पन्न नहीं होगा तो उसके उपदेश, व्याख्यान, समाधान, प्रेरणा या कथन का श्रोता पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ेगा, न उसको सन्तोषजनक समाधान होगा। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा है-—
आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे ।
जे धम्मं सुद्धक्खाति, पडिपुण्णमणेलिसं ॥
अर्थात्– ''जो सदा तीन गुप्तियों से आत्मा को सुरक्षित (गुप्त) रखता हो, दान्त हो, कर्मबन्धन के स्रोत को जिसने छिन्न कर दिया हो, जो आश्रवों से रहित ( संवरधर्म में रत) हो, वही परिपूर्ण, अनुपम एवं शुद्ध (जिनोक्त) धर्म का प्रतिपादन कर सकता है।
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इन्हीं गुणों से मिलते-जुलते कुछ प्रमुख गुणों का निरूपण प्रस्तुत गाथा में किया गया है वह (१) निभृत, (२) दान्त, (३) सर्वजीव - सुखावह, (४) शिक्षा - समायुक्त एवं (५) विचक्षण हो । इनकी व्याख्या क्रमश: इस प्रकार है— (१) निहुओ—–— निभृत : तीन अर्थ – (१) स्थितात्मा, (२) निश्चलमना, (३) असम्भ्रान्त या निर्भय । (२) दंतो—दान्त– जितेन्द्रिय, (३) सर्वभूतसुखावह - (१) सर्वजीवों को सुख पहुंचाने वाला, (२) सब जीवों का हितैषी, (३) सब प्राणियों का सुखवाञ्छक । (४) शिक्षासमायुक्त — गुरु के सान्निध्य में रहकर ग्रहणशिक्षा (सूत्र और अर्थ का अभ्यास करना) और आसेवनशिक्षा ( आचार का सेवन और अनाचार का वर्जन) करने वाला । (५) विक्खणो- विचक्षण—- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र और परिस्थिति का आकलन करने में निपुण । इस प्रकार के गुणों से सुशोभित महान् चारित्रात्मा आचार्य या गणी ही अपने शान्त, शीतल, मधुर उपदेश या समाधान से सुखशान्ति का संदेश देते हैं ।
निर्ग्रन्थ- आचार की विशेषता यहां दो सूत्र - गाथाओं ( २६७ - २६८) में मुमुक्षु निर्ग्रन्थों के आचार की
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सूत्रकृतांग श्रुत. १
(क) दशवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २९५
(ख) दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३१२-३१३
(ग) दशवै. (संतबालजी), पृ. ७१
(क) सिक्खा दुविधा, तं गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा य । गहणसिक्खा नाम सुत्तत्थाणं गहणं, आसेवणासिक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा, तेसिं कारणं संफासणं, अकरणिजाण य वज्जणया ।
(ख) दशवै. आचार्य आत्मारामजी महाराज, पृ. ३१६-३१७