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सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि
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गाथाओं में है। तात्पर्य यह है कि साधु का वेष धारण करने मात्र से कोई साधु नहीं हो जाता। अतएव पूर्वोक्त गाथा में दिये गये साधु के लक्षणों से युक्त संयमी को ही साधु कहे। असाधु को वेषधारी या द्रव्यलिंगी कहा जा सकता है। परन्तु जिसका दुनिया में अपवाद नहीं है, जिसका व्यवहार शुद्ध है, प्रशंसनीय है, उसी पर से निर्णय करके उसे साधु कहना चाहिए। निश्चय तो केवली भगवान् ही जानते हैं कि कौन व्यक्ति कैसा है ? प्रकट रूप में व्यवहारशुद्धि ही देखी जाती है । ३६
जय-पराजय, प्रकृतिकोपादि एवं मिथ्यावाद के प्ररूपण का निषेध
३८१. देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं
हे
अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५० ॥ वाओ वुट्टं व सीउन्हं खेमं धायं सिवं ति वा । कया णु होज्ज एयाणि ? मा वा होउ त्ति नो वए ॥ ५१ ॥ ३८३. तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देव देव त्ति गिरं वएज्जा ।
संमुच्छिए उन्नए वा पओदे, वएज्ज वा 'वुट्टे बलाहए' ति ॥ ५२ ॥ ३८४. 'अंतलिक्खे' त्ति णं बूया, 'गुज्झाणुचरियं' ति य ।
रिद्धिमंतं नरं दिस्स 'रिद्धिमंतं' ति आलवे ॥ ५३ ॥
३८२.
[ ३८१] देवों का, मनुष्यों का अथवा तिर्यञ्चों (पशु-पक्षियों) का परस्पर संग्राम (विग्रह या कलह ) होने पर अमुक (पक्षवालों) की विजय हो, अथवा (अमुक पक्ष वालों की) विजय न हो, इस प्रकार न कहे ॥ ५० ॥
[३८२] वायु, वृष्टि, सर्दी, गर्मी, क्षेम (रोगादि उपद्रव से शान्ति), सुभिक्ष अथवा शिव (कल्याण), ये कब होंगे ? अथवा ये न हों (तो अच्छा रहे), इस प्रकार न कहे ॥ ५१ ॥
[३८३] इसी प्रकार (साधु या साध्वी) मेघ को, आकाश को अथवा मानव को —'यह देव है, यह देव है', इस प्रकार की भाषा न बोले । (किन्तु मेघ को देख कर ) — ' यह मेघ चढ़ा हुआ (उमड़ रहा है), अथवा उन्नत हो रहा है (झुक रहा है), यह मेघमाला (बलाहक) बरस पड़ी है' इस प्रकार बोले ॥ ५२ ॥
[३८४] (भाषाविवेकनिपुण साधु या साध्वी) नभ ( और मेघ) अन्तरिक्ष तथा गुह्यानुचरित (गुह्यक देवों द्वारा सेवित अथवा देवों के आवागमन का गुप्त मार्ग है, इस प्रकार कहे तथा ऋद्धिमान् मनुष्य को देख कर ) – यह ऋद्धिशाली है' ऐसा कहे ॥ ५३ ॥
विवेचन – जय-पराजय- विषयक कथन में दोष पारस्परिक युद्ध हो या द्वन्द्व, चाहे देवों का हो, मनुष्यों का हो अथवा तिर्यञ्च का, साधु को यह कदापि नहीं कहना चाहिए कि अमुक पक्ष या व्यक्ति की विजय हो, अमुक की हार हो, क्योंकि इस प्रकार कहने से युद्ध के अनुमोदन का दोष लगता है। दूसरे पक्ष को द्वेष उत्पन्न होता है, आघात पहुंचता है, अधिकरणादि दोषों की सम्भावना रहती है। अतः ऐसी भाषा कर्मबन्ध का कारण होती है ।३७
३६.
(क) दशवैकालिकसूत्र, पत्राकार ( आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७१२, ७१३ (ख) जे णिव्वाणसाहए जोगे साधयति ते भावसाधवो भण्णंति ।
३७. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७१४
(ख) जिनदासचूर्णि, पृ. २६२
(ग) हारि. वृत्ति, पत्र २२२
—जिनदासचूर्णि, पृ. २६१