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दशवकालिकसूत्र
वायु, वर्षा आदि के होने, न होने के विषय में बोलने का निषेध जिसमें अपनी और दूसरों की शारीरिक सुख-सुविधा अथवा धूप आदि से पीड़ित साधु को अपनी पीड़ानिवृत्ति के लिए अनुकूल स्थिति के होने (हवा, वृष्टि, सर्दी-गर्मी, उपद्रवशमन, सुभिक्ष तथा दैविक उपसर्ग की शक्ति आदि) तथा प्रतिकृल परिस्थिति के न होने की आशंका हो, ऐसा वचन साधु या साध्वी न कहे। क्योंकि जो बातें प्राकृतिक हैं, उनके होने, न होने के विषय में साधु को कुछ कहना ठीक नहीं। साधु द्वारा इस प्रकार के कथन करने से अधिकरण दोष का प्रसंग तो है ही, दूसरे, साधु के कथन के अनुसार वायु, वृष्टि आदि के होने से वायुकाय जलकायादि के जीवों की विराधना का अनुमोदन तथा कई लोगों को वायु-वृष्टि आदि से पीड़ा या हानि भी हो सकती है। साधु के कहे अनुसार यदि पूर्वोक्त कार्य न हों तो उसे स्वयं को आर्त्तध्यान होगा, तथा श्रोता की धर्म एवं धर्मगुरु (मुनि) पर से श्रद्धा कम हो जाएगी। इस प्रकार की और भी बहुत हानियां हैं। अतः प्रकृति की उक्त क्रियाओं के विषय में साधु को भविष्य कथन या सम्मतिप्रदान कदापि नहीं करनी चाहिए।
खेमं धायं सिवं ति वा : विभिन्न अर्थ क्षेम का अर्थ शत्रुसेना (परचक्र) आदि का उपद्रव न होने की स्थिति है, अथवा टीकाकार के मतानुसार क्षेम का अर्थ राजरोग का अभाव होना है। 'धायं' का अर्थ है सुभिक्ष और सिवं (शिव) का अर्थ है रोग-महामारी का अभाव, उपद्रव का अभाव। . __'तहेव मेहं व० गाथा का फलितार्थ निर्ग्रन्थ साधु के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित हो कि प्रश्नोपनिषद् आदि वैदिक धर्मग्रन्थों में आकाश, वायु, मानव, अग्नि, जल आदि को देव कहा गया है, ऐसी स्थिति में आप क्या कहते हैं ?, इसके समाधान में यह गाथा है। इसमें कहा गया है कि निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी सत्यमहाव्रती हैं, जिसका जैसा स्वरूप है, वैसा ही कथन करना उनके लिए अभीष्ट है। अतः मेघ, आकाश और (ब्राह्मण या क्षत्रिय) मानव आदि को देव कहना अत्युक्तिपूर्ण है। ये देव नहीं हैं, इन्हें देव कहने से मिथ्यात्व की स्थापना और मानव में लघुता (हीनता) आदि की भावना आती है, साथ ही मृषावाद का दोष लगता है। जनता में मिथ्या धारणा न फैले, इसलिए यह निषेध किया है। वस्तुतः यह कथन इन सबको देव कहने का प्रतिषेधक है, उपमालंकारादि की अपेक्षा से नहीं।
प्रश्न उपस्थित होता है कि मेघ, आकाश एवं ऋद्धिशाली मनुष्य आदि को क्या कहा जाए? इसके समाधानार्थ इस गाथा का उत्तरार्द्ध तथा अगली गाथा प्रस्तुत है। इसका फलितार्थ यह है कि जब आकाश में बादल उमड़-घुमड़ कर चढ़ आएं, तब आकाशदेव में मेघदेव चढ़ आए हैं, ऐसा न कह कर आकाश में मेघ चढ़ा हुआ आ रहा है। बरसने
-अ.चू., पृ. १७७
३८. (क) एताणि सरीरसुहहेउं पयाणं वा आसंसमाणो....णो वदे ।
(ख) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७१७. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७१७ (ख) क्षेमं राजविज्वरशून्यम् ।।
(ग) ध्रातं सुभिक्षम् । शिवं इति चोपसर्गरहितम् । ४०. (क) प्रश्नोपनिषद्, प्रश्न २/२
(ख) मनुस्मृति अ. ७/८, महाभा. शान्ति. ६८/४० (ग) 'मिथ्यावाद-लाघवादि-प्रसंगात ।' (घ) तत्थ मिच्छत्तथिरीकरणादि दोसा भवंति । (ङ) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७१८-७१९
-हारि. वृत्ति, पृ. २२३
—हारि. वृत्ति, पृ. २२३ -जिनदासचूर्णि, पृ. २६२