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दशवैकालिकसूत्र सदा के लिए छोड़ दे और हितकारी तथा आनुलोमिक (सभी प्राणियों के लिए अनुकूल) वचन बोले ॥५६॥
विवेचन अध्ययन का सारांश प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (३८५ से ३८७ तक) में इस अध्ययन में प्रतिपादित भाषाशुद्धि के विवेक का सारांश दिया गया है।
भाषाविवेकसूत्र ये हैं—(१) सावध की अनुमोदिनी, (२) अवधारिणी (निश्चयकारिणी या संशयकारिणी), (३) परोपघातिनी तथा (४) क्रोध-लोभ-भय-हास्य से प्रेरित भाषा न बोले, (५) सुवाक्यशुद्धि का सम्यक् विचार करे, (६) दोषयुक्त वाणी का त्याग करे, (७) पूर्वापर विचार करके दोषरहित वाणी बोले, (८) भाषा के दोषों और गुणों को जाने, (९) षट्काय के प्रति संयत और सदा यत्नवान् होकर प्रबुद्ध साधु स्व-पर-हितकर और प्राणियों के लिए अनुकूल (मधुर) भाषा का ही प्रयोग करे।
___ सावजानुमोदिनी आदि शब्दों की व्याख्या सावधानुमोदिनी–जो भाषा पापकर्म का अनुमोदन करने वाली हो, यथा-'अच्छा हुआ, यह पापी ग्राम नष्ट कर दिया।' अवधारिणी : दो अर्थ (१) निश्चयकारिणी यथा-'यह ऐसा ही है।' अथवा 'यह बुरा ही है।' (२) अथवा संदिग्ध वस्तु के विषय में असंदिग्ध वचन बोलना, जैसे-'भंते! यह ऐसा ही है।' अथवा (३) संशयकारिणी यथा—'यह चोर है या परस्त्रीगामी ?' परोपघातिनीजिसके बोलने से दूसरे जीवों को पीड़ा पहुंचती हो, यथा-मांस खाने में कोई दोष नहीं है। सवक्क-सुद्धिं, सुवक्कसुद्धिं चार रूपः दो अर्थ (१) स वाक्यशुद्धिं वह मुनि वाक्यशुद्धि को, (२) सद्वाक्यशुद्धिं सद्वाक्य की शुद्धि को, (३) स्ववाक्यशुद्धि-अपने वाक्य की शुद्धि को, (४) सुवाक्यशुद्धिं श्रेष्ठ वाक्-(वचन) की शुद्धि को (विचार कर)। हियाणुलोमियं सर्वजीवहितकर तथा मधुर होने से सबको रुचिकर या अनुकूल।
भयसा य माणवो हे मानव (साधो!) हंसी में सावध का अनुमोदन करने वाली भाषा न बोले, भय, क्रोधादि से बोलने की तो बात ही दूर। तत्त्व केवलिगम्य या बहुश्रुतगम्य।
४२.. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ५३ ४३. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७२१ (ख) अवधारिणी-इदमित्थमेवेति, संशयकारिणी वा । अवधारिणीम् अशोभन एवाऽयमित्यादिरूपाम् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २५३-२५४ (ग) ओधारिणीमसंदिद्धरूवं संदिद्धे विभणितं च से णूणं भंते ! मण्णामीति ओधारिणी भासा ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. १७८ (घ) तत्थ ओहारिणी संकिया भण्णति । जहा—एसो चोरो, पारदारिओ ? एवमादि —जिन. चूर्णि, पृ. ३२१
(ङ) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७२३ ४४. (क) माणवा ! इति मणुस्सामंतणं, "मणुस्सेसु धम्मोवदेस" इति ।
-अ. चू., पृ. १७८ (ख) माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुधम्मोत्ति काऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा हे माणवा! . (ग) मानवः -पुमान् साधुः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २२३ (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ३६७