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सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि
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लगे तो कहना चाहिए कि मेघ बरस रहा है। मेघ (बादल) को जैनशास्त्रों में पुद्गलों का समूह माना गया है। नभ और मेघ को अन्तरिक्ष को गुह्यानुचरित अर्थात् —देवसेवित (अथवा देवों के चलने का मार्ग) कहे। ऋद्धिमान् वैभवशाली एवं चमत्कारी मनुष्य को प्राचीन काल में देव या भगवान् कहने का रिवाज था, परन्तु यहां बताया गया है कि ऋद्धिमान् को देव या भगवान् न कह कर 'ऋद्धिमान्' कहे। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु जिस प्रकार से हो, उसे उसी प्रकार से कहना चाहिए। मिथ्या प्रशंसा या झूठी अद्भुतता व्यक्त नहीं करनी चाहिए।" भाषाशुद्धि का अभ्यास अनिवार्य
३८५. तहे व सावजणुमोयणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से कोह-लोह-भयसा वर माणवो,
न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥ ५४॥ ३८६. *सु-वक्कसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुटुं परिवजए सया ।। मियं अदुटुं अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ ५५॥ ३८७. भासाए दोसे य गुणे य जाणिया,
तीसे यदुवाए विवजए सया । छसु संजए सामणिए सया जए,
वएज बुद्धे हियमाणुलोमियं ॥५६॥ __[३८५] इसी प्रकार जो भाषा सावध (पाप-कर्म) का अनुमोदन करने वाली हो, जो निश्चयकारिणी (और संशयकारिणी हो) एवं पर-उपघातकारिणी हो, उसे क्रोध, लोभ, भय (मान) या हास्यवश भी (साधु या साध्वी) न बोले ॥५४॥
[३८६] जो मुनि श्रेष्ठ वचनशुद्धि का सम्यक् सम्प्रेक्षण करके दोषयुक्त भाषा को सर्वदा सर्वथा छोड़ देता है तथा परिमित और दोषरहित वचन पूर्वापर विचार करके बोलता है, वह सत्पुरुषों के मध्य में प्रशंसा प्राप्त करता है ॥५५॥
[३८७] षड्जीवनिकाय के प्रति संयत (सम्यक् यतना करने वाला) तथा श्रामण्यभाव में सदा यत्नशील (सावधान) रहने वाला प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) साधु भाषा के दोषों और गुणों को जान कर एवं उसमें से दोषयुक्त भाषा को ४१. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७१८-७१९
(ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ९९ (ग) तत्थ नभं अंतलिक्खंति वा वदेज्जा गुज्झाणुचरितं ति वा। ...मेहोवि अंतरिक्खो भण्णइ, गुज्झगाणुचरिओ भण्णइ॥
-जिनदासचूर्णि, पृ. २६३ पाठान्तर- x भय-हास-माणवो । * सवक्कसुद्धिं । दुढे ।