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छठा अध्ययन : महाचारकथा
ခုခု ၃
महेसिणा : महर्षि ने : दो अभिप्रायार्थ (१) प्रस्तुत शास्त्र के कर्ता आचार्य शय्यंभव ने, (२) गणधर ने।३१
प्रस्तुत २८४ वीं सूत्रगाथा का अर्थ वृत्तिकार और दोनों चूर्णिकार अलग-अलग करते हैं। वृत्तिकारसम्मत अर्थ ऊपर दिया गया है। चूर्णिकारद्वय-सम्मत अर्थ इस प्रकार है—सर्व कालों और सर्व क्षेत्रों में बुद्ध (तीर्थंकर भगवान्) उपधि (एक देवदूष्य वस्त्र) के साथ प्रव्रजित होते हैं। प्रत्येकबुद्ध, जिनकल्पिक आदि भी संयम-धन की रक्षा के लिए उपधि (रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि) ग्रहण करते हैं। वे उपकरणों पर तो दूर रहा, अपने तन पर भी ममत्व नहीं करते, क्योंकि वे केवल यतना के लिए उपकरण धारण करते हैं ।३२ छठा आचारस्थान : रात्रिभोजनविरमणव्रत
२८५. अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धेहिं वण्णियं ।
जा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥ २२॥ २८६. संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा ।
जाई राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे ? ॥ २३॥ २८७. उदओल्लं बीअसंसत्तं पाणा निव्वडिया महिं ।
दिया ताई विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ? ॥ २४॥ २८८. एयं च दोसं दठूणं नायपुत्तेण भासियं ।
सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥ २५॥ [२८५] अहो ! समस्त तीर्थंकरों (बुद्धों) ने (देह-पालन के लिए) संयम (लज्जा) के अनुकूल (सम) वृत्ति और एक बार भोजन (अथवा दिन में ही रागद्वेषरहित होकर आहार करना), इस नित्य (दैनिक) तपःकर्म का उपदेश दिया है ॥ २२॥
३१. (क) गणधरा, मणगपिया वा एवमाहुः ।
-वही, पृ. २२१ (ख) महर्षिणा -गणधरेण, सूत्रे सेजंभव आहेति ।
-हारि.वृत्ति, पत्र १९९ ३२. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ.७६ .
(ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३३६ (ग) सव्वत्थ उवधिणा सह सोपकरणा बुद्धा-जिणा । ...सव्वेवि एगदूसेण निग्गता । पत्तेयबुद्ध-जिणकप्पियादयो वि
रयहरण-मुहणंतगातिणा सह संजमसारक्खणत्थे परिग्गहेण मुच्छानिमित्ते, तंमि विजमाणे वि भगवंतो मुच्छं न गच्छंतीति अपरिग्गहा । कहं च ते भगवंतो उवकरणे मुच्छं काहिंति, जेहिं जयणत्थमुवगरणं धारिजति तंमि? अवि अप्पणो वि देहमि णाचरंति ममाइतं ।
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १४८ संरक्षणपरिग्रह इति संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति योगः । बुद्धाः यथावविदितवस्तुतत्त्वाः साधवः । सर्वत्र उचिते क्षेत्रे काले च ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १९९ (ङ) सव्वेसु अतीताणागतेसु सव्वभूमिएसु त्ति ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २२१ (च) संरक्खणपरिग्गहो नाम संजमरक्खणनिमित्तं परिगिण्हति ।
—वही, पृ. २२१