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दशवैकालिकसूत्र
विभूषा का त्याग क्यों आवश्यक ? – (१) इससे देहभाव बढ़ता है, जिससे शरीर पर ममतामूर्च्छा बढ़ती है, आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, संयम नियम में शिथिल हो जाता है। (२) अहर्निश शरीरसज्जा पर ध्यान रहने से चित्त भ्रान्त रहता है। स्वाध्याय, ध्यान आदि आवश्यक दिनचर्या से मन हट जाता है। (३) विभूषा के लिए अनेक आरम्भसमारम्भयुक्त साधनों का उपयोग करना हिंसानुप्राणित होने से वह असंयमवर्द्धक है, सावद्य - बहुल है । (४) शरीर पर अत्यधिक मोह एवं आसक्ति होने से विभूषा चिकने कर्मबन्ध का कारण है । १२
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'सिणाणं' आदि शब्दों का विशेषार्थ : स्नान : तीन अर्थ - ( १ ) अंगप्रक्षालन चूर्ण, (२) गन्धवर्तिका, (३) सामयिक उपस्नान। कक्कं कल्क : तीन अर्थ - (१) तेल की चिकनाई मिटाने हेतु लगाया जाने वाला आँवले या पिसी हुई दाल का सुगन्धित उबटन, (२) गन्धाट्टक – स्नानार्थ प्रयुक्त किया जाने वाला सुगन्धित द्रव्य । (३) चूर्णकाषाय । लोद्धं – लोध : दो अर्थ – (१) लोध्र पुष्प का पराग (गन्ध द्रव्य) । (२) मुख पर कान्ति लाने व पसीने को सुखाने के लिए प्रयोग किया जाने वाला पठानी लोध वृक्ष की छाल का चूर्ण । पउमंगाणि पद्मक: दो अर्थ – (१) पद्मकेसर, (२) कुंकुमयुक्त विशेष सुगन्धित द्रव्य (१३
नगिणस्स वा मुण्डस्स० – वृत्तिकार के अनुसार नग्न शब्द के दो लक्षण दिये गये हैं— (१) निरुपचरित नग्न और (२) औपचारिक नग्न । जो निर्वस्त्र रहते हैं, वस्त्र या अन्य किसी भी उपकरण से शरीर को आवृत्त नहीं करते, वे निरुपचरित नग्न होते हैं । वे जिनकल्पिक होते हैं। दूसरे स्थविरकल्पिक मुनि जो वस्त्र पहनते हैं, वे वस्त्र प्रमाणोपेत तथा अल्पमूल्य के होते हैं। इसलिए उन्हें कुचेलवान् या औपचारिक नग्न कहते हैं। मुण्डस्स—मुण्डित——मस्तक मुण्डित होने से साधु रूपवान् नहीं लगता, फिर शरीर को सजाने से क्या मतलब। दीहरोमनहंसिणो: दीर्घरोमनखवान् कांख आदि में लम्बे-लम्बे रोम वाले तथा हाथ में बढ़े हुए नख वाले या दीर्घरोमनखास्त्रीय — जिनके रोम तथा नख
कोण (काटे न जा सकने में) दीर्घ हैं। अथवा प्रस्तुत गाथा जिनकल्प मुनि को लेकर अंकित है, ऐसा व्याख्याकारों का मत है क्योंकि सर्वथा नग्न जिनकल्पी मुनि रहते हैं, दीर्घ नख तथा रोम रखने का व्यवहार भी जिनकल्पिकों का है। स्थविरकल्पिक के नख तो प्रमाणोपेत ही होते हैं, ताकि अन्धकार आदि के समय दूसरे साधुओं को न लग सकें (५४
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५२.
५३.
५४.
(क) दशवै. (संतबालजी), पृ. ८६
(ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३७८-३७९ (क) सिणाणं सामयिणं उवण्हाणं । अधवा गंधवट्टओ । कक्कं ण्हाणसंजोगो वा । लोद्धं कसायादि अपंडुरच्छदिकरणत्थं -अ. चू., पृ. १५६ - हारि. वृत्ति, पत्र २०६
दिज्जति ।
(ख) स्नानं पूर्वोक्तम्, लोध्रं गन्धद्रव्यम् । पद्मकानि — कुंकुमकेसराणि ।
(ग) स्नानमङ्गप्रक्षालनं चूर्णम् ।
-प्रव. प्र. ४३ अव.
(क) 'नग्नस्य वापि ' —कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यसेव सूत्रम् दीर्घरोमवत: कक्षादिषु, दीर्घनखवतो हस्तादी, जिनकल्पिकस्य । इतरस्य तु प्रमाणयुक्ता नखा शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति ।
। दीर्घरोमनखवत :भवन्ति, यथाऽन्यसाधूनां हारि. वृत्ति, पत्र २०६
(ख) दीहाणि रोमाणि कक्खादिसु जस्स सो दीहरोमो । आश्री कोटी, णहाणं आश्रीयो नहस्सीओ । गहा जदि वि पणिहादीहिं कप्पिज्जंति, तहवि असंठविताओ णहथूराओ दीहाओ भवंति । दीहसद्दो पत्तेयं भवति । दीहाणि रोमाणि णहस्सीयो य जस्स सो दीहरोमणहस्सी तस्स ।
—अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५७
(ग) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३७८-३७९