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प्रस्तुत अध्ययन वाक्यशुद्धि का विवेक देने हेतु स्वतंत्र रूप से निर्मित है, जिससे साधक वाणी के महत्त्व को समझ सके। वाणी अन्तःकरण के भावों को व्यक्त करने का साधन है, यही इसकी उपयोगिता है। किसी कार्य, प्रयोजन या कारण के बिना वाणी का उपयोग करना वाचालता है, इसे वाणी का दुरुपयोग कहा जा सकता है। उस वाणी का, श्रोतागण पर पर्याप्त प्रभाव नहीं पड़ता तथा उसमें कठोरता, एकान्तवाद, हठाग्रह एवं असत्यता आने की संभावना रहती है। ये सब अनिष्ट हैं। जिस साधक को सावद्यनिरवद्य का विवेक नहीं है, उसे बोलना भी उचित नहीं, उपदेश देना तो बहुत दूर है। वाणी का प्रयोग समिति है, जो सावध-निरवद्य के विवेक से युक्त होती है। इसलिए साधक को कब, कहां, कितना और कैसा वचन बोलना चाहिए? बोलने से पहले और बोलते समय कितनी सूक्ष्म बुद्धि से
काम लेना चाहिए? यह प्रस्तुत अध्ययन में विस्तृतरूप से बताया गया है। । वस्तु के यथार्थ स्वरूप को व्यक्त करने वाली भाषा तथ्य हो सकती है, किन्तु वह सत्य हो भी
सकती है, नहीं भी। जिस वधकारक या परपीड़ाकारी भाषा से कर्मपरमाणुओं का प्रवाह आए, वह बाहर से सत्य प्रतीत होने पर भी अवक्तव्य है, एक तरह से वह असत्यसम है। अतः प्रस्तुत अध्ययन
में सत्य-असत्य के विवेक के साथ-साथ वक्तव्य-अवक्तव्य का भी विवेक बताया गया है।' । यद्यपि भाषा के प्रकारों का विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना एवं स्थानांग में किया गया है, तथापि यहां संक्षेप
में चार प्रकार की भाषाओं में से असत्या और सत्या-मृषा (मिश्र) भाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया गया है, क्योंकि इन दोनों प्रकार की भाषाओं का प्रयोग सावध होता है, तथा सत्या और असत्याऽमृषा (व्यवहार भाषा) के प्रयोग का विधान-निषेध दोनों हैं, क्योंकि सत्या और व्यवहार भाषा सावध
और निरवद्य दोनों प्रकार की हो सकती है। साधु को निरवद्य भाषा ही बोलना है, सावद्य नहीं। । इस अध्ययन के अन्तर्गत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र, परिस्थिति की कसौटी पर कस कर निरवद्य
वचन का विधान और सावद्य का निषेध किया है। 0 अन्त में, उपसंहार में सुवाक्यशुद्धि के अनन्तर एवं परम्पर फल का वर्णन किया गया है।
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४. जं वक्कं वयमाणस्स संजमो सुज्झइ न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धिति ॥
–दश. नियुक्ति २८८ दशवै. (संतबालजी) प्रस्तावना, पृ.८८ सावजण-वजाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥
—हारि. टीका, पृ. २-७ दशवै. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), अ.७, ११, १२, १३ __(क) प्रज्ञापना पद ११, स्थानांग, स्थान-१० (ख) दशवै. (मूलपाठ टिप्पण), गा. १-२-३ ९. वही, गाथा ५५, ५६,५७