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दशवकालिकसूत्र होती है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है—'संखडी आदि कृत्यों (भोजों में) जो मुनि सरस आहार ग्रहण करते हैं, अथवा सरस भोजन पाने के लिए ऐसे भोजों की प्रशंसा करते हैं, वे वनीपक (भिखमंगे) हैं, मुनि नहीं।६ (२) वध्यस्थान पर ले जाते हुए या गिरफ्तार या दण्डित किये जाते हुए चोर को देख कर—'यह चोर महापापी है, यह जीएगा तो लोगों की बहुत सताएगा, अतः इस दुष्ट को मार डालना या कठोर दण्ड देना ही ठीक है। ऐसा कहना ठीक नहीं। (३) तथा जल से लबालब भरी हुई बहती नदी को देख कर 'इस नदी के तट बहुत अच्छे हैं। यह सुखपूर्वक भुजाओं से तैर कर पार की जा सकती है, इसमें खूब मजे से जलक्रीड़ा की जा सकती है। अथवा यह नदी नौका से पार की जा सकती है। इसके तट पर बैठे-बैठे ही सभी प्राणी सुखपूर्वक पानी पी सकते हैं' इत्यादि वचन साधुसाध्वी नहीं कहें, क्योंकि ऐसा कहने से अधिकरण तथा जल के तथा तदाश्रित जीवों के विघात आदि दोषों का प्रसंग उपस्थित हो सकता है।"
'संखडि' आदि शब्दों के विशेषार्थ संखडि : दो अर्थ (१) जिससे षट्जीवनिकाय के आयुष्य खण्डित होते हैं अर्थात् उनकी विराधना होती है, वह संखडी है। अथवा (२) भोज में अन्न का संस्कार किया जाता है—पकाया जाता है, इसलिए इसे 'संस्कृति' भी कहते हैं। किच्चं : दो अर्थ—(१) कृत्य-मृतकभोज, अथका (२) पितरों या देवों के प्रीति सम्पादनार्थ किये जाने वाले 'कृत्य' ।२८
पणिअट्ठ आदि शब्दों का भावार्थ पणिअट्ठ : पणितार्थ चोर को देख कर मुनि चोर न कह कर सांकेतिक भाषा में पणितार्थ (जिसे धन से ही प्रयोजन है, वह) है, ऐसा कहे या ऐसा कहे कि अपने स्वार्थ के लिए यह प्राणों को दांव पर लगा देता है। पाणिपिज्ज-प्राणिपेया जिससे तट पर बैठे-बैठे प्राणी जल पी सकें, के नदियां । उप्पिलोदगा-उत्पीडोदका—दूसरी नदियों के द्वारा जिनका जल उत्पीड़ित होता हो, अथवा बहुत भरने के कारण जिनका जल उत्पीड़ित हो गया हो—दूसरी ओर मुड़ गया हो, वे नदियां । अथवा अन्य नदियों के जल-प्रवाह को पीछे हटाने वालीं।२९ परकृत सावधव्यापार के सम्बन्ध में सावधवचन-निषेध ३७१. तहेव सावजं जोगं परस्सऽट्ठाए निट्टियं ।
कीरमाणं ति वा णच्चा सावजं नाऽलवे मुणी ॥ ४०॥ २५. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६९०-६९१
(ख) किच्चमेयं जं पितीण देवयाण य अट्ठाए दिज्जइ, करणिज्जेयं जं पियकारियं देवकारियं वा किज्जइ । २६. संखडिपमुहे किच्चे, सरसाहारं खु जे पगिण्हंति । भत्तटुं थुव्वंति, वणीमगा ते वि, न हु मुणिणो ॥ -हारि. वृ., प. २१९ २७. दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.६९१ २८. (क) छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि संखंडिजति जीए सा संखडी भण्णइ । —जिनदासचूर्णि, पृ. २५७ (ख) किच्चमेव घरत्येण देवपीति-मणुसकजमिति ।
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १७४ २९. (क) पणितेनाऽर्थो यस्येति पणितार्थः, प्राणद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २१९ (ख) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.६९२ (ग) तडत्थिएहिं पाणीहिं पिज्जतीति पाणिपिज्जाओ 'उप्पिलोदगा' नाम जासिं परनदीहिं उप्पीलियाणि उदगाणि, अहवा बहउप्पिलादओ जासिं अइभरियत्तणेण अण्णणो पाणियं वच्चइ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २५८०