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सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि भी प्रज्ञावान् न बोले।
एयं च अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं : दो व्याख्याएँ, स्पष्टीकरण (१) अगस्त्यसिंह स्थविर इस गाथा (३३५) का सम्बन्ध सत्या और असत्यामृषा के निषेध से बतलाते हैं। इस दृष्टि से सासयं का अर्थ 'स्वाशय' है। तथा 'सच्चमोसं' के बदले 'असच्चमोसं' पाठ मानकर अर्थ किया है साधुवर्ग के लिए अभ्यनुज्ञात उस सत्यभाषा और असत्यामृषा भाषा को भी धीर साधु (या साध्वी) न बोले, जो स्वाशय (अपने आशय) को 'यह अर्थ है या दूसरा ?' इस प्रकार संशय में डाल दे। असत्यामृषाभाषा के १२ प्रकारों में १० वां प्रकार 'संशयकरणी' है, जो अनेकार्थवाचक होने से श्रोता को संशय में डाल दे। जैसे किसी ने कहा—'सैन्धव ले आओ।' सैन्धव के ४ अर्थ होते हैं—(१) नमक, (२) सिन्धु देश का घोड़ा, (३) वस्त्र और (४) मनुष्य। श्रोता संशय में पड़ जाता है कि कौन-सा सैन्धव लाया जाए? यहां वक्ता ने सहजभाव से अनेकार्थक शब्द का प्रयोग किया है, इसलिए अनाचीर्ण नहीं है, किन्तु जहां आशय को छिपा कर दूसरों को भ्रम में डालने के लिए 'अश्वत्थामा हतः' की तरह अनेकार्थवाचक शब्द का प्रयोग किया जाए तो ऐसी संशयकरणी व्यवहार (असत्यामृषा) भाषा अनाचीर्ण है। अथवा जो शब्द संदेहोत्पादक हो, उसका प्रयोग भी अनाचीर्ण है। (२) अगस्त्यचूर्णि के अनुसार सासयं का संस्कृत रूप 'शाश्वत' भी होता है, शाश्वत स्थान का अर्थ 'मोक्ष' है। अर्थात् —सक्रिय आस्रवकर एवं छेदनकर आदि अर्थ, जो शाश्वत मोक्ष को भग्न करे, उस सत्यभाषा और असत्यामृषा भाषा का भी धीर साधक प्रयोग न करे।
वृत्तिकार इस गाथा को सत्यामृषा (सत्यासत्य) तथा सावद्य एवं कर्कश सत्य का निषेधपरक कहते हैं, किन्तु सत्यामृषा और असत्या ये दोनों भाषाएं तो सावध होने के कारण सर्वथा अवक्तव्य हैं, फिर इनके पुनर्निषेध की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसके अनुसार इस पंक्ति का आशय यह है कि बुद्धिमान भिक्षु सत्यामृषाअर्थात् कुछ सत्य और कुछ असत्य, ऐसी मिश्रभाषा भी न बोले, क्योंकि मिश्र भाषा में भी सत्य का अंश होने से जनता अधिक भ्रमित होती है और स्वयं भी सत्यवादी कहलाने का दम्भ करता है। ऐसी दम्भवृत्ति ऐहिक और पारलौकिक हित में अत्यन्त बाधक है।
फलितार्थ—इसकी तुलना आचारचूला से भी की जा सकती है। वहां चारों प्रकार की भाषा का स्वरूप बताने ४. (क) 'या च बुद्धैः तीर्थंकर—गणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा।' —हारि. व. पृ. २१३ (ख) चउत्थी वि जा अबुद्धेहिंऽणाइना गहणेण असच्चामोसा वि गहिता, उक्कमकरणे मोसावि गहिता ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २४४ (क) संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थ-साधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत् ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २१० (ख) साम्प्रतं सत्या-सत्यामषा प्रतिषेधार्थमाह ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २१० (ग) से भिक्खू ण केवलं जाओ पुव्वभणियाओ सावजभासाओ वजेजा, किन्तु जा वि असच्चमोसा भासा तामपि
'धीरो'-बुद्धिमान् 'विवर्जयेत्न ब्रूयादिति भावः । एवं सावजं कक्कसं च । —जिनदासचूर्णि, पृ. २४५ (घ) सा पुण साधुणोऽब्भणुण्णाता त्ति सच्चा...असच्चमोसामपि तं पढममब्भणुण्णतामवि । एतमिति सावजं कक्कसं च। अण्णं सकिरियं अण्हयकरी छेदनकरी एवमादि । सासतो मोक्खो ।
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १६५ तत्र मृषा सत्या-मृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कर्कशादिगुणोपेता सा न वाच्या। 'तहप्पगारं भासं सावजं सकिरियं कक्कसं कडुयं निठुरं फरुसं अण्हयकरि छेयणकरि भेयणकरिं परितावणकरि उद्दवणकरि भूओबघाइयं अभिकखं नो भासेज्जा ।'
-आचारांग चूला, ४/१०