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सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि
२५५ का हनन करते हैं, अपनी गंभीरता और महानता को नष्ट करके क्षुद्रता और क्रूरता को अपनाते हैं, ऐसे साधु-साध्वी के प्रति जनता को अप्रीति, अश्रद्धा, घृणा, अभक्ति एवं वैरविरोध भावना पैदा हो जाती है। ऐसे साधु-साध्वी को भी लज्जानाश, धृष्टता, क्रूरता, भावहिंसा, बौद्धिक विराधना, अस्थिरता एवं प्रतिज्ञाभ्रष्टता आदि पाप-दोष लगते हैं। वह - संयम का विराधक हो जाता है।
साधु के दो विशेषण : सार्थक शास्त्रकार ने यहां भाषाशुद्धि के अनुसार चलने वाले साधु के दो विशेषण अंकित किये हैं, जो साधु की गम्भीरता एवं दक्षता सूचित करते हैं—(१) आचारभावदोषज्ञ और (२) प्रज्ञावान्।'
फरुसा—परुष-कठोर, रूक्ष, स्नेहवर्जित अथवा मर्मप्रकाशन करने वाली वाणी। गुरुभूओवघाइणी—(१) जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो। (२) छोटे-बड़े सभी जीवों के लिए घातक, (३) गुरुजनों (बुजुर्गों या गुरुओं—मातापिता आदि) को संतप्त करने वाली। (४) अभ्याख्यानात्मक।" भाषासम्बन्धी अन्य विधि-निषेध
३४५. तहेव होले''गोले'त्ति, 'साणे' वा 'वसुले'त्ति य ।
'दमए' 'दुहए' वा वि, न तं भासेज पण्णवं ॥ १४॥ ३४६. अज्जिए पज्जिए वा वि अम्मो माउसिय त्ति वा ।
पिउस्सिए भाइणेज त्ति, धू नत्तुणिए ति य ॥ १५॥ ३४७. हले हले त्ति अन्ने त्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि ।
होले गोले वसुले त्ति, इत्थियं नेवमालवे ॥ १६॥ ३४८. नामधेजेण णं बूया, इत्थीगोत्तेण वा पुणो ।
जहारिहमभिगिझ आलवेज लवेज वा ॥ १७॥ ३४९. अजए पज्जए वा वि बप्पो चुल्लपिउ ति य ।
माउला भाइणेज त्ति, पुत्ते णत्तुणिय त्ति य ॥ १८॥ ३५०. हे हो हले त्ति, अन्ने त्ति, भट्टा सामिय गोमिय ।
होल गोल वसुलत्ति । पुरिसं नेवमालवे ॥ १९॥
९. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज) पत्राकार, पृ. ६५२-६५३
(ख) वही, पृ. ६५५-६५६ १०. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पत्राकार, पृ.६५५ ११. (क) वयणनियमणमायारो, एयंमि आयारे सति भावदोसो—पदुह्र चित्तं तेण भावदोसेण न भासेज । अहवा आयारे भावदोसो पमातो, पमातेण ण भासेज ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. १६८ (ख) फरुसा णाम णेहवज्जिया, जीए भासाए भासियाए गुरुओ भूयाणुवघाओ भवइ ।
-वही, पृ. २४९ (ग) परुषा भाषा-निष्ठुरा भावस्नेहरहिता ।
-हारि. वृत्ति, पत्र २१५ (घ) परुषां मर्मोदघाटनपराम् ।
-आचारचूला, ४-१०