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सत्तमं अज्झयणं : वक्कसुद्धी सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि
चार प्रकार की भाषाएँ और वक्तव्य-अवक्तव्य-निर्देश
३३२. चउण्हं खलु भासाणं परिसंखाय पन्नवं ।
दोण्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासेज सव्वसो ॥१॥ ३३३. जा य. सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा ।।
जा य बुद्धेहिंऽणाइन्ना, न तं भासेज प्रण्णवं ॥२॥ ३३४. असच्चमोसं सच्चं च अणक्जमकक्कसं ।
"समुप्पेहमसंदिद्धं गिरं भासेज पण्णवं ॥३॥ ३३५. एयं च अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं ।
सभासं असच्चमोसं पि+ तं पि धीरो विवजए ॥ ४॥ ३३६. वितहं पि तहामुत्तिं जं गिरं भासए नरो ।
तम्हा सो पुट्ठो पावेणं किं पुणो जो मुसं वए ? ॥ ५॥ [३३२] प्रज्ञावान् साधु (या साध्वी) (सत्या आदि) चारों ही भाषाओं को सभी प्रकार से जान कर दो उत्तम भाषाओं का शुद्ध प्रयोग (विनय) करना सीखे और (शेष) दो (अधम) भाषाओं को सर्वथा न बोले ॥१॥
[३३३] तथा जो भाषा सत्य है, किन्तु (सावद्य या हिंसाजनक होने से) अवक्तव्य (बोलने योग्य नहीं) है, जो सत्या-मृषा (मिश्र) है, तथा मृषा है एवं जो (सावद्य) असत्यामृषा (व्यवहारभाषा) है, (किन्तु) तीर्थंकरदेवों (बुद्धों) के द्वारा अनाचीर्ण है, उसे भी प्रज्ञावान् साधु न बोले ॥२॥
[३३४] प्रज्ञावान् साधु, जो असत्याऽमृषा (व्यवहारभाषा) और सत्यभाषा अनवद्य (पापरहित), अकर्कश (मृदु) और असंदिग्ध (सन्देहरहित) हो, उसे सम्यक् प्रकार से विचार कर बोले ॥३॥
[३३५] धैर्यवान् साधु उस (पूर्वोक्त) सत्यामृषा (मिश्रभाषा) को भी न बोले, जिसका यह अर्थ है, या दूसरा है ? (इस प्रकार से) अपने आशय को संदिग्ध (प्रतिकूल) बना देती हो ॥४॥
[३३६] जो मनुष्य सत्य दीखने वाली असत्य (वितथ) वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है, उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है, तो फिर जो (साक्षात्) मृषा बोलता है, (उसके पाप का तो क्या कहना ?) ॥५॥
विवेचन चारों भाषाओं का स्वरूप और हेयोपादेय-विवेक प्रस्तुत ५ सूत्रगाथाओं (३३२ से ३३६
पाठान्तर- + सच्चमोसं पि ।-वृत्तिकार