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कार्मण शरीर स्वयं कृश हो जाता है।
ओवसंता : सदा उपशान्त जिनको अपकार करने वाले पर भी क्रोध नहीं आता। अममा अकिंचणाजो शरीरादि पर ममत्वभाव से रहित हैं और द्रव्यभावपरिग्रह से रहित हैं। सविज्ज - विज्जाणुगया—स्व यानी आत्मा की विद्या यानी विज्ञान आध्यात्मविद्या । तात्पर्य यह है कि स्वविद्या ही विद्या है, उससे जो अनुगत — युक्त हैं । विद्या शब्द का दुबारा प्रयोग लौकिक विद्या का निषेध करने के लिए है । वृत्तिकार ने स्वविद्या का अर्थ केवल श्रुतज्ञानरूप परलोकोपकारिणी विद्या किया है। अर्थात् — जो परलोकोपकारिणी श्रुतज्ञान विद्या के अतिरिक्त इहलोकोपकारिणी शिल्पादिकलाओं में प्रवृत्त नहीं है। उउप्पसन्ने विमले०-छह ऋतुओं में सबसे अधिक प्रसन्न ऋतु शरद् है । शरऋतु के चन्द्रमा के समान विमल — पापकर्ममलरहित है । विमाणाइं उवेंति — वैमानिक देवों के निवासस्थान विमान कहलाते हैं । रत्नत्रयाराधक साधक उत्कृष्टतः अनुत्तर विमान तक को प्राप्त कर लेते हैं।६
॥ छठा : धर्मार्थकामाध्ययन समाप्त ॥
(ङ) स्वविद्यविद्यानुगता :
-अ. चू., पृ. १५७
५६. (क) मोहं विवरीयं ण मोहं अमोहं पस्संति—— अमोहदंसिणो । (ख) अमोहं पासंति त्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी ।
- जि.. चू., पृ. २३३
(ग) अप्पाणं- अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिट्ठप्रयोगो । जीवे जधा मतसरीरं भण्णतिति सो अप्पा जस्सिमं सरं । तत्थ सरीरे ताव थूलप्पा किसप्पा । इह पुण तं खविज्जति । अप्पवयणं सरीरे ओरालियसरीरखवणेण कम्मणं वा सरीरक्खवणमिति, उभयेणाधिकारो । -अ. चू., पृ. १५७
(घ) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३८३
:-स्व इति अप्पा, विज्जा- विन्नाणं, आत्मानि विद्या सविज्जा, अज्झप्पविज्जा । विद्यागणातो
दशवैकालिकसूत्र
सेसिज्जति, अज्झप्पविज्जा जा विज्जा, ताए अणुगता ।
(च) बीयं विज्जागहणं लोइयविज्जापडिसेहणत्थं कयं ।
(छ) स्वविद्या— परलोकोपकारिणी केवल श्रुतरूपा
(ज) उऊ छ, तेसु पसन्नो उउप्पसण्णो, सो पुण सरदो । अहवा उडू एव पसण्णो ।
(झ) जहा सरए चंदिमा विसेसेण निम्मलो भवति ।
(ञ) विमानानि सौधर्मावतंसकादीनि ।
(ट) विमाणाणि - उक्कोसेण अणुत्तरादीणि ।
-अ. चू., पृ. १५८ ———-जिनदासचूर्णि, पृ. २३४
- अ. चू., पृ. १५८ — जिन. चूर्णि, पृ. २३४ -हारि. वृत्ति, पत्र २०७ —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५८