SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ कार्मण शरीर स्वयं कृश हो जाता है। ओवसंता : सदा उपशान्त जिनको अपकार करने वाले पर भी क्रोध नहीं आता। अममा अकिंचणाजो शरीरादि पर ममत्वभाव से रहित हैं और द्रव्यभावपरिग्रह से रहित हैं। सविज्ज - विज्जाणुगया—स्व यानी आत्मा की विद्या यानी विज्ञान आध्यात्मविद्या । तात्पर्य यह है कि स्वविद्या ही विद्या है, उससे जो अनुगत — युक्त हैं । विद्या शब्द का दुबारा प्रयोग लौकिक विद्या का निषेध करने के लिए है । वृत्तिकार ने स्वविद्या का अर्थ केवल श्रुतज्ञानरूप परलोकोपकारिणी विद्या किया है। अर्थात् — जो परलोकोपकारिणी श्रुतज्ञान विद्या के अतिरिक्त इहलोकोपकारिणी शिल्पादिकलाओं में प्रवृत्त नहीं है। उउप्पसन्ने विमले०-छह ऋतुओं में सबसे अधिक प्रसन्न ऋतु शरद् है । शरऋतु के चन्द्रमा के समान विमल — पापकर्ममलरहित है । विमाणाइं उवेंति — वैमानिक देवों के निवासस्थान विमान कहलाते हैं । रत्नत्रयाराधक साधक उत्कृष्टतः अनुत्तर विमान तक को प्राप्त कर लेते हैं।६ ॥ छठा : धर्मार्थकामाध्ययन समाप्त ॥ (ङ) स्वविद्यविद्यानुगता : -अ. चू., पृ. १५७ ५६. (क) मोहं विवरीयं ण मोहं अमोहं पस्संति—— अमोहदंसिणो । (ख) अमोहं पासंति त्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी । - जि.. चू., पृ. २३३ (ग) अप्पाणं- अप्पा इति एस सद्दो जीवे सरीरे य दिट्ठप्रयोगो । जीवे जधा मतसरीरं भण्णतिति सो अप्पा जस्सिमं सरं । तत्थ सरीरे ताव थूलप्पा किसप्पा । इह पुण तं खविज्जति । अप्पवयणं सरीरे ओरालियसरीरखवणेण कम्मणं वा सरीरक्खवणमिति, उभयेणाधिकारो । -अ. चू., पृ. १५७ (घ) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३८३ :-स्व इति अप्पा, विज्जा- विन्नाणं, आत्मानि विद्या सविज्जा, अज्झप्पविज्जा । विद्यागणातो दशवैकालिकसूत्र सेसिज्जति, अज्झप्पविज्जा जा विज्जा, ताए अणुगता । (च) बीयं विज्जागहणं लोइयविज्जापडिसेहणत्थं कयं । (छ) स्वविद्या— परलोकोपकारिणी केवल श्रुतरूपा (ज) उऊ छ, तेसु पसन्नो उउप्पसण्णो, सो पुण सरदो । अहवा उडू एव पसण्णो । (झ) जहा सरए चंदिमा विसेसेण निम्मलो भवति । (ञ) विमानानि सौधर्मावतंसकादीनि । (ट) विमाणाणि - उक्कोसेण अणुत्तरादीणि । -अ. चू., पृ. १५८ ———-जिनदासचूर्णि, पृ. २३४ - अ. चू., पृ. १५८ — जिन. चूर्णि, पृ. २३४ -हारि. वृत्ति, पत्र २०७ —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy