SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा आचारनिष्ठा निर्मलता एवं निर्मोहता आदि का सुफल ३३०. खवेंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अज्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करेंति ॥ ६७॥ ३३१. सओवसंता अममा अकिंचणा सविज्ज - विज्जाणुगया जसंसिणो । उउप्पसन्ने विमले व चंदिमा सिद्धिं विमाणाइं उवेंति ताइणो ॥ ६८ ॥ —त्ति बेमि ॥ २४५ ॥ छ्टुं धम्मऽत्थकामऽज्झयणं समत्तं ॥ [३३०] व्यामोह-रहित तत्त्वदर्शी तथा तप, संयम और आर्जव गुण में रत रहने वाले वे (पूर्वोक्त अष्टादश आचारस्थानों के पालक साधु) अपने शरीर (आप) को क्षीण (कृश) कर देते हैं। वे पूर्वकृत पापों का क्षय कर डालते हैं और नये पाप नहीं करते ॥ ६७ ॥ [३३१] सदा उपशान्त, ममत्व-रहित, अकिंचन (निष्परिग्रही) अपनी अध्यात्म-विद्या के अनुगामी तथा जगत् के जीवों के त्राता और यशस्वी हैं, शरदऋतु के निर्मल चन्द्रमा के समान सर्वथा विमल (कर्ममल से रहित) साधु (या साध्वी) सिद्धि (मुक्ति) को अथवा (कर्म शेष रहने पर सौधर्मावतंसक आदि) विमानों को प्राप्त करतेहैं ॥ ६८ ॥ —ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन—– अष्टादश आचारस्थान - पालक साधु की अर्हताएँ – प्रस्तुत दो ( ३३० - ३३१) सूत्रगाथाओं में पूर्वोक्त अष्टादश आचार-स्थानों के पालक साधु-साध्वियों की अर्हताओं का वर्णन करके उनकी आचार - पालननिष्ठा के सुपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है। आचारपालननिष्ठ साधुवर्ग की अर्हताएँ – (१) अमोहदर्शी, (२) तप, संयम और आर्जव गुण में रत, (३) शरीर को तपश्चर्या एवं कठोर आचार से कृश करने वाले, (४) सदा उपशान्त, (५) ममत्वरहित, (६) अकिंचन, (७) अध्यात्मविद्या के अनुगामी, (८) षड्जीवनिकायत्राता, (९) यशस्वी एवं (१०) शरदऋतु के निर्मल चन्द्र के समान कर्ममलरहित (14 'अमोहदंसिणो' आदि पदों की व्याख्या— अमोहदर्शी— मोह का प्रतिपक्षी अमोह है । अमोहदर्शी का अर्थ अविपरीतदर्शी अर्थात् सम्यग्दृष्टि या मोहरहित होकर तत्त्व का द्रष्टा है। क्योंकि जो साधु मोहरहित होकर पदार्थों का स्वरूप देखते हैं, वे ही यथार्थ द्रष्टा हो सकते हैं। अप्पाणं खवेंति-आत्मा शब्द शरीर और जीव दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे—मृत शरीर को देख कर कहा जाता है— इसका आत्मा (जीव) चला गया। यहां आत्मा जीव के अर्थ में प्रयुक्त है।' यश कृशात्मा या स्थूलात्मा है', इस प्रयोग में आत्मा शरीर के अर्थ में है। प्रस्तुत गाथा में आत्मा 'शरीर' अर्थ में प्रयुक्त है। शरीर ५ प्रकार के होते हैं, किन्तु यहां कार्मण शरीर का अधिकार है। तप द्वारा कार्मण (सूक्ष्म) शरीर का क्षय (कर्मक्षय) किया जाता है, तब औदारिक (स्थूल) शरीर स्वतः कृश हो जाता है। अथवा औदारिक शरीर के क्षयार्थ तप किया जाता है, तब ५५. दसवेयालियं (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. ४६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy