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छठा अध्ययन : महाचारकथा
२४३ अठारहवां आचारस्थान : विभूषात्याग
३२६. सिणाणं अदुवा कक्कं लोद्धं पउमगाणि य ।
गायस्सुवट्टणट्ठाए नाऽयरंति कयाइ वि ॥ ६३॥ ३२७. नगिणस्स वा वि मुंडस्स दीहरोम-नहंसिणो ।
मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाए कारियं ॥ ६४॥ ३२८. विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं । ___ संसार-सायरे घोरे जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥६५॥ ३२९. विभूसावत्तियं चेयं बुद्धा मन्नंति तारिसं ।
सावजबहुलं चेयं, नेयं ताईहिं सेवियं ॥६६॥ [३२६] (शुद्ध संयम के पालक साधु या साध्वी) स्नान अथवा अपने शरीर पर उबटन करने के लिए कल्क (चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य), लोध्र (लोध) या पद्मराग (कुंकुम, केसर आदि तथा अन्य सुगन्धित तेल या द्रव्य) का कदापि उपयोग नहीं करते ॥६३॥
[३२७] (द्रव्य और भाव से) नग्न, मुण्डित, दीर्घ (लम्बे-लम्बे) रोम और नखों वाले तथा मैथुनकर्म से उपशान्त (निवृत्त) साधु को विभूषा (शरीरशोभा या श्रृंगार) से क्या प्रयोजन है! ॥ ६४॥
[३२८] विभूषा के निमित्त से साधु (या साध्वी) चिकने (दारुण) कर्म बांधता है, जिसके कारण वह दुस्तर संसार-सागर में जा पड़ता है ॥६५॥
[३२९] तीर्थंकर देव (बुद्ध) विभूषा में संलग्न-चित्त को वैसा ही (विभूषा के तुल्य ही चिकने कर्मबन्ध का हेतु) मानते हैं। ऐसा चित्त (आर्त-रौद्रध्यान से युक्त होने से) सावध-बहुल (प्रचुर-पापयुक्त) है। (अतएव) यह षट्काय के त्राता (साधु-साध्वियों) के द्वारा आसेवित नहीं है ॥६६॥
विवेचन विभूषा : स्वरूप, निषेधहेतु एवं दुष्फल प्रस्तुत चार सूत्रगाथाओं (३२६ से ३२९ तक) में यह बताया गया है कि विभूषा साधुवर्ग के लिए क्यों त्याज्य है ? विभूषा के ध्यान में रत चित्तवाला साधक कैसे कठोर दुष्कर्मों को बांधता है ?
स्वरूप शरीर को विभिन्न सुगन्धित द्रव्यों से उबटन करके चिकना, कोमल और गौर बनाना विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूषणों से या अन्य पदार्थों से सुसज्जित-सुगन्धित करना, केश, नख आदि अमुक ढंग से काटना, रंगना, सजाना-संवारना आदि सब विभूषा है।
विभूषा के साधन प्रस्तुत गाथाओं में विभूषा के उस युग में प्रचलित कुछ साधनों का उल्लेख किया है। यथा-सौन्दर्य प्रसाधनार्थ स्नान, कल्क, लोध, पद्मकेसर, केशकलाप, नखकर्तन वस्त्रादि से साजसज्जा आदि। वर्तमान में अन्य साधन हो सकते हैं।
ण्हायमाणस्स बंभचेरे अगुत्ती भवति, सिणाणपच्चइओ य कायकिलेसो तवो सो ण हवइ, विभूसादोसो य भवति।"
-जिनदासचूर्णि, पृ. २३२ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ८५