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छठा अध्ययन : महाचारकथा
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में भोजन करने की अनुज्ञा प्रतीत होती है।*
लज्जासमावित्ति : विशेष भावार्थ लज्जा का अर्थ यहां संयम है। उसके सदृश यानी संयम के अनुरूप या अविरोधिनी वृत्ति (निर्दोष भिक्षा से प्राप्त आहारादि का दिवस में उपभोग)। तात्पर्य यह है कि दिवस में शुद्ध भिक्षा से प्राप्त आहार का उपभोग संयम के अनुरूप —अविरोधी वृत्ति है, जो भगवान् ने साधु-साध्वियों के लिए बताई है।" ___ रात्रिभोजनत्याग के मुख्य कारण—प्रस्तुत दो गाथाओं में रात्रिभोजन के मुख्य दोष बताए गए हैं रात्रि में अन्धकार होने से त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा नहीं हो सकती, रात्रि में दीपक या अन्य प्रकाश का उपयोग साधु नहीं कर सकता, यदि चांदनी रात हो, या प्रकाशित स्थान हो तो भी रात्रि में नाना प्रकार के संपातिम जीव आ-आकर भोजन में गिर सकते हैं। इससे आत्मविराधना और जीवविराधना दोनों होती हैं। भिक्षाचर्या भी रात में सर्वत्र प्रकाश न होने से नहीं हो सकती और न ही एषणाशुद्धि हो सकती है। रात्रि में अन्धकार में मार्गशुद्धि और आहारशुद्धि नहीं हो सकती। रात्रि को भिक्षाचरी के लिए भ्रमण करने में भूमि पर खड़े हुए या रहे हुए जीव-जन्तु नहीं दिखाई दे सकते। सचित्त जल से भीगा हुआ या बीजादि से संस्पृष्ट आहार दिखाई न देने से रात्रि में आहार ग्रहण करना भी निषिद्ध है। निष्कर्ष यह है कि रात्रि में विहार और भिक्षाचर्या दोनों ही निषिद्ध होने से रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध हो जाता है। इन सब दोषों के कारण साधुवर्ग के लिए भगवान् ने रात्रि में आहार करने का निषेध किया है।३५ रात्रिभोजन से संयमविराधनों का दोष बतलाया गया है. संयमविराधना में सभी दोषों का समावेश हो गया। यथारात्रि में भिक्षाटन करने जाएगा, तब अन्धकार हो जाने से विशेष निर्लज्जता भी बढ़ सकती है, फिर मैथुनादि दोषों का प्रसंग भी उपस्थित होना सम्भव है। कभी-कभी स्वार्थ-सिद्धि के लिए असत्य का प्रयोग भी कर सकता है, अदत्तादान और परिग्रह का भी भाव रात्रि में गृहस्थों के घरों में जाने से हो सकता है, अतः रात्रि में आहार-विहार से संयमविराधना के अन्तर्गत ये सब दोष उत्पन्न हो सकते हैं।२६ सातवें से बारहवें आचारस्थान तक: षट्जीवनिकाय-संयम
२८९. पुढविकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ २६॥ २९०. पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई तु तदस्सिए ।
तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ २७॥ * ओघनियुक्ति गा. २५०, भाष्य गा. १४८-१४९ ३४. (क) 'लजा—संयमस्तेन समा-सदृशी-तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः ।' . यावल्लज्जासमा ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १९९ ३५. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३४०, ३४१, ३४२ (ख) उदकाई पूर्ववद्ग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्स्निग्धादिपरिग्रहः । 'बीजसंसक्तं-बीजैः संसक्तं मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा बीजानि पृथक्भूतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति।'
-हारि. वृत्ति, पत्र २०० ३६. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३४३
(ख) दशवै. (संतबालजी), पृ.७७ (ग) विशेष स्पष्टीकरण के लिए 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ देखें ।