________________
२३०
दशवकालिकसूत्र ___ [२८६] ये जो त्रस और स्थावर अतिसूक्ष्म प्राणी हैं, जिन्हें (साधुवर्ग) रात्रि में नहीं देख पाता, तब (आहार की) एषणा कैसे कर सकता है ? ॥ २३ ॥
[२८७] उदक से आर्द्र (सचित्त जल से भीगा हुआ), बीजों से संसक्त (संस्पृष्ट) आहार को तथा पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणियों को दिन में बचाया जा सकता है, (रात्रि में नहीं), तब फिर रात्रि में निर्ग्रन्थ भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ? ॥ २४॥
[२८८] ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने इसी (हिंसात्मक) दोष को देख कर कहा--निर्ग्रन्थ (साधु या साध्वी) रात्रिभोजन नहीं करते। (वे रात्रि में) सब (चारों) प्रकार के आहार का सेवन नहीं करते ॥ २५ ॥
विवेचन रात्रिभोजननिषेध : क्यों?—प्रस्तुत चार गाथाओं (२८५ से २८८ तक) में रात्रिभोजनत्याग की सहज भूमिका, रात्रि में भिक्षाचरी एवं एषणाशुद्धि की दुष्करता तथा अहिंसा की दृष्टि से भगवान् महावीर द्वारा रात्रि में चतुर्विध-आहार-परिभोग के सर्वथा निषेध का प्रतिपादन किया गया है।
एकभक्त-भोजन : रात्रिभोजननिषेध का समर्थक प्रस्तुत गाथा रात्रिभोजन-त्याग के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गई है, इसलिए एकभक्तभोजन का अर्थ दिवसभोजन माना जाए, या दिन में एक बार भोजन माना जाए ? यहां इसे नित्य तपःकर्म (स्थायी तपश्चर्या) बताया गया है। चूर्णिकार और वृत्तिकार के मतानुसार दिवस में एक बार भोजन करना अथवा रागद्वेषरहित होकर एकाकी भोजन करना एकभक्त-भोजन है। मूलाचार में भी इसी का समर्थन मिलता है—"सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़ कर मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, एकभक्तभोजन रूप मूलगुण है।" स्कन्दपुराणे, मनुस्मृति और वशिष्ठस्मृति में भी एक बार भोजन का संन्यासियों के लिए विधान है। उत्तराध्ययनसूत्र में दिन के तृतीय पहर में भिक्षा और भोजन करने का विधान है। किन्तु आगमों के अन्य स्थलों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि यह क्रम सब साधुओं के लिए या सभी स्थितियों में नहीं रहा। दशवैकालिकसूत्र के अष्टम अध्यय की २८वीं गाथा से तो साधु-साध्वियों का भोजनकाल सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच का दिवस का कोई भी काल सिद्ध होता है। जो भी हो, एकभक्त-भोजन से अनायास ही रात्रिभोजनत्याग तो फलित हो ही जाता है। ओघनियुक्ति में प्रातः, मध्याह्न और सायं इन तीनों समयों ३३. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ३१७
(ख) एगस्स रागद्दोसरहियस्स भोअणं, अहवा इक्कवारं दिवसओ भोयणंति । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२६ (ग) द्रव्यतः एक-एकसंख्यानुगतं, भावतः कर्मबन्धाभावाद् द्वितीयं,तदिवस एव रागदिरहितस्य, अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति।
-हारि. वृत्ति, पत्र १९९ (घ) उदयत्थमणे काले णाली-तिय-वज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ-तिए वा मुहुत्तकाले य भत्तं तु ॥
-मूलाचार, मूलगुण. ३५ (ङ) दिनार्द्धसमयेऽतीते, भुज्यते नियमेन यत् । ए भक्तमिति प्रोक्तं, रात्रौ तन्न कदाचन । -स्कन्दपुराण (च) एककाले चरेद् भैक्ष्यम् ।
--मनुस्मृति ६/५५ (छ) ब्रह्मचर्योक्तमार्गेण सकृद्भोजनमाचरेत् ।
-वशिष्ठस्मृति ३/१९८ (ज) अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं सव्वं म.सा वि न पत्थए ।
-दश.८/२८ . (झ) भगवती ७/१, सूत्र २१