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छठा अध्ययन: महाचारकथा
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३०५. तम्हा एयं वियाणित्ता दो दोग्गइ-वड्डणं ।
वणस्सइ-समारंभं जावज्जीवाए वजए ॥ ४२॥ ३०६. तसकायं न हिंसंति मणसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥४३॥ ३०७. तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तदस्सिए ।
तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ ४४॥ ३०८. तम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दोग्गइ-वड्डणं ।
तसकाय-समारंभं जावजीवाए वजए ॥ ४५॥ । [२८९] श्रेष्ठ समाधि वाले संयमी (साधु-साध्वी) मन, वचन और काय—इस त्रिविध योग से और कृत, कारित एवं अनुमोदन—इस त्रिविध करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते ॥ २६॥
[२९०] पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ (साधक) उसके आश्रित रहे हुए विविध प्रकार के चाक्षुष (नेत्रों से दिखाई देने वाले) और अचाक्षुष (नहीं दिखाई देने वाले) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है ॥ २७॥
[२९१] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन पृथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग करे ॥ २८॥
[२९२] सुसमाधिमान् संयमी मन, वचन और काय इस त्रिविध योग से तथा कृत, कारित और अनुमोदन इस त्रिविध करण से अप्काय की हिंसा नहीं करते ॥ २९॥ ___ [२९३] अप्कायिक जीवों की हिंसा करता हुआ (साधक) उनके आश्रित रहे हुए विविध चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्यमान) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है ॥३०॥
[२९४] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) यावज्जीवन अप्काय के समारम्भ का त्याग करे ॥३१॥
[२९५] (साधु-साध्वी) जाततेज —अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते, क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय है ॥ ३२॥
[२९६] वह (अग्नि) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्वदिशा तथा अधोदिशा और विदिशाओं में (सभी जीवों का) दहन करती है ॥ ३३॥
[२९७] निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि) प्राणियों के लिए आघातजनक है। अतः संयमी (साधु-साध्वी) प्रकाश (प्रदीपन) और ताप (प्रतापन) के लिए उस (अग्नि) का किंचिन्मात्र भी आरम्भ न करे ॥ ३४॥
. [२९८] (अग्नि जीवों के लिए विघातक है), इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करे ॥ ३५॥
[२९९] बुद्ध (तीर्थंकरदेव) वायु (अनिल) के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के सदृश ही मानते हैं। यह सावध-बहुल (प्रचुरपापयुक्त) है। अतः यह षट्काय के त्राता साधुओं के द्वारा आसेवित नहीं है ॥ ३६॥ - [३००] (इसलिए) वे (साधु-साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्र (पत्ते) से, वृक्ष की शाखा से, अथवा पंखे से (स्वयं) हवा करना तथा दूसरों से हवा करवाना नहीं चाहते (और उपलक्षण से अनुमोदन भी नहीं करते