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छठा अध्ययन : महाचारकथा
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अकल्प्य हो, उसे ग्रहण करना तो दूर रहा, उसे ग्रहण करने की इच्छा भी न करे। अकल्प्य का विचार इस प्रकार हैअकल्प्य दो प्रकार के हैं शैक्षस्थापना-अकल्प्य और अकल्पस्थापना-अकल्प्य। शैक्ष (नवदीक्षित जो कल्प, अकल्प को न जानता हो) के द्वारा लाया हुआ या याचित आहार, वसति, वस्त्रग्रहण तथा वर्षाकाल में किसी को प्रव्रजित करना या ऋतुबद्ध काल में अयोग्य को प्रव्रजित करना, शैक्षस्थापना-अकल्प्य है। जिनदास महत्तर के अनुसार जिसने पिण्डनियुक्ति या पिण्डैषणाऽध्ययन (आचारांग) न पढ़ा हो उसके द्वारा लाया हुआ भक्त-पान, जिसने शय्याऽध्ययन (आचार चूला-२) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा याचित वसति (उपाश्रयादि) और जिसने वस्त्रैषणा (आचारचूला-५) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत वस्त्र, वर्षाकाल में किसी को प्रव्रजित करना तथा ऋतुबद्ध काल में अयोग्य को प्रव्रजित करना शैक्ष-स्थापना-अकल्प्य कहलाता है। वृत्तिकार ने इसके अतिरिक्त भी बताया है कि जिसने पात्रैषणा (आचारचूला-६) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत पात्र भी शैक्षस्थापना-अकल्प्य है। अकल्पनीय पिण्ड आदि को ही इन व्याख्याकारों ने अकल्पस्थापना-अकल्प्य' कहा है और यही यहां संगत है।"
अभोजाइं आदि पदों का विशेषार्थ —अभोज्जाइं-अभोज्यानि अर्थात् अकल्पनीय, असेवनीय। जो भक्तपान, वस्त्र, पात्र और वसति (उपाश्रय आदि आवासस्थान) साधु-साध्वियों के लिए अग्राह्य हों, विधिसम्मत न हों, संयम के लिए अपकारी हों, वे अकल्पनीय हैं। इसिणा-(१) ऋषिणाऋषि के द्वारा अथवा (२) ऋषीणांऋषियों का। आहारमाईणि आहारादि। आदि शब्द से शय्या, वस्त्र और पात्र का ग्रहण करना चाहिए। चौदहवां आचारस्थान : गृहस्थ के भाजन में परिभोगनिषेध
३१३. कंसेसु कंसपाएसु कुंडमोएसु वा पुणो ।
भुंजतो असणपाणाई+आयरा परिभस्सई ॥५०॥ ३१४. सीओदगसमारंभे मत्तधोयणछड्डुणे ।
जाइं छण्णंति भूयाई, तत्थ* दिट्ठो असंजमों ॥५१॥ ४१. (क) पढमोत्तरगुणो अकप्पो ।सो दुविहो तं—सेहठवणाकप्पो अकप्पठणाकप्पो य । पिंड-सेज-वत्थ-पत्ताणि अप्पप्पणो अकप्पितेण उप्पाइयाणि ण कप्पंति ।....अकप्पठवणाकप्पो इमो ।
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५२ (ख) अणहीआ खलु जेणं पिंडेसणसेज-वत्थ-पाएसा ।
तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥१॥ उउबलुमि ण अणला, वासावासे उ दोवि णो सेहा । दिक्खिजंती पायं उवणाकप्पो इमो होइ ॥२॥
-हारि. वृत्ति, पत्र २०३ ४२. (क) अभोजाणि-अकप्पियाणि ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २२७ (ख) अभोज्यानि-संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि । (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ३२२ . (घ) इसिणा-साधुना । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२७ (ङ) ऋषीणां साधूनाम् ।—हारि.वृत्ति, पत्र २०३ (च) 'आहार-शय्या-वस्त्रपात्राणि-आहारादीनि ।'
—हारि. वृत्ति, पत्र २०३ पाठान्तर- + असणपाणाई ।
* सो तत्थ