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छठा अध्ययन: महाचारकथा
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२७५. मुसावाओ अ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहिओ ।
____ अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवजए ॥ १२॥ [२७४] (निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी) अपने लिए या दूसरों के लिए, क्रोध से अथवा (मान, माया और लोभ से) या भय से हिंसाकारक (परपीड़ाजनक सत्य) और असत्य (मृषावचन) न बोले, (और) न ही दूसरों से बुलवाए, और न बोलने वालों का अनुमोदन करे ॥ ११॥ ___[२७५] (इस समग्र) लोक में समस्त साधुओं द्वारा मृषावाद (असत्य) गर्हित (निन्दित) है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अतः (निर्ग्रन्थ) मृषावाद का पूर्णरूप से परित्याग कर दे ॥ १२॥
विवेचन-असत्याचरण क्या, उसका त्याग क्यों और कैसे ?—जिस वचन, विचार और व्यवहार (कार्य) से दूसरों को पीड़ा पहुंचती हो, जो वचनादि समग्रलोकगर्हित हो, वह असत्य है। प्रस्तुत दो गाथाओं में असत्य भाषण के मुख्यतया क्रोध और भय इन दो कारणों का उल्लेख है। चूर्णिकार और वृर्तिकार ने इन दोनों को सांकेतिक मानकर तथा द्वितीय महाव्रत में निर्दिष्ट, क्रोध, लोभ, भय और हास्य, इन चारों को परिगणित करके उपलक्षण से ('एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणं' इस न्याय से) इसके ६ कारण बताए हैं—(१) क्रोध से असत्य-जैसे 'तू दास है' ऐसा कहना, (२) मान से असत्य-जैसे अबहुश्रुत होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत, शास्त्रज्ञ या पडित कहना या लिखना, (३) माया से असत्य-जैसे भिक्षाचर्या से जी चुराने के लिए कहना कि मेरे पैर में बहुत पीड़ा है, (४) लोभ से असत्य सरस भोजन की प्राप्ति के लोभ से एषणीय नीरस भोजन को अनेषणीय कहना, (५) भय से असत्य-असत्याचरण करके प्रायश्चित्त के भय से उसे अस्वीकार करना। (६) हास्यवश असत्य हंसीमजाक में या कुतूहलवश असत्य बोलना, लिखना।५
हिंसक वचन सत्य होते हुए भी असत्य माना गया है, इसलिए उसका भी साधुवर्ग के लिए निषेध है। हिंसक वचन में कर्कश, कठोर, वधकारक, छेदन-भेदनकारक, निश्चयकारक या संदिग्ध आदि सब परपीड़ाकारक वचन आ जाते हैं। अतः अपने निमित्त या दूसरों के निमित्त (अर्थात् —स्वार्थ या परार्थ) दोनों दृष्टियों से मन-वचन-काया से कृत-कारित, अनुमोदित रूप से इन सब असत्याचरणों का परित्याग साधुवर्ग के लिए अनिवार्य है, क्योंकि असत्य संसार के सभी मतों और धर्मों के साधु पुरुषों सज्जनों एवं शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दनीय है। यह अविश्वास का कारण
सत्य की आराधना के बिना शेष शिक्षापदों (व्रतों) का महत्त्व नहीं बौद्ध धर्म विहित पंचशिक्षापदों में भी मृषावाद-परिहार (सत्य) को अधिक महत्त्वपूर्ण इसलिए माना गया है कि इसकी आराधना के बिना, अन्य शिक्षापदों की आराधना सम्भव नहीं होती। एक उदाहरण भी जिनदासचूर्णि में प्रस्तुत किया गया है—एक उपासक (बौद्ध श्रावक) ने मृषावाद के सिवाय शेष चार शिक्षापद ग्रहण कर लिये। मृषावाद की छूट के कारण वह अन्य
१५. हारि. वृत्ति, पत्र १९७ १६. (क) हिंसगं जं सच्चमवि पीडाकारिं, मुसा-वितहं, तदुभयं ण बूया, ण वयेज। -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १४५ (ख) 'अपि च न तच्चवचनं सत्यमतच्चवचनं न च । यद भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमितरं मुषा ।'
-जिनदासचूर्णि, पृ. २१८ (ग) दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३२५-३२६