________________
२२४
दशवैकालिकसूत्र शिक्षापदों को भंग करने लगा। उसके मित्र ने उससे कहा-"तुम इन शिक्षापदों (व्रतों) को क्यों तोड़ते हो।" उसने कहा-"यह सरासर झूठ है, मैं कहां इन्हें तोड़ता हूं ?" मैंने मृषावाद का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया था, इसलिए इन सब शिक्षापदों को हृदय में धारण करके रखा है। इस प्रकार सत्य शिक्षापद (व्रत) के अभाव में उसने शेष सभी शिक्षापदों को भंग कर दिया। तृतीय आचारस्थान : अदत्तादान-निषेध (अचौर्य)
२७६. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया ॥ १३॥ २७७. तं अप्पणा न गेण्हंति, नो वि गेण्हावए परं ।
अन्नं वि गेण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥ १४॥ [२७६-२७७] संयमी साधु-साध्वी, पदार्थ सचेतन (सजीव) हो या अचेतन (निर्जीव), अल्प हो या बहुत, यहां तक कि दन्तशोधन मात्र (दांत कुरेदने के लिए एक तिनका) भी हो, जिस गृहस्थ के अवग्रह (अर्थात् —अधिकार) में हो, उससे याचना किये बिना (अथवा आज्ञा लिए बिना) उसे स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से ग्रहण नहीं कराते और न ग्रहण करने वाले अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करते हैं ॥ १३-१४॥
विवेचन–अचौर्य आचार किसी के स्वामित्व, अधिकार या निश्राय की वस्तु, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव (पात्र, पुस्तक, रजोहरणादि), अल्प हो या बहुत, अल्पमूल्य हो या बहुमूल्य, यहां तक कि एक तिनका ही क्यों न हो, उसके स्वामी या अधिकारी की बिना आज्ञा अनुमति या सहमति के मन, वचन और काया से स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से ग्रहण न कराना और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन न करना, अचौर्य महाव्रत का आचरण है, जिसका सभी साधु-साध्वियों को पालन करना अनिवार्य है।८
चित्तमंतमचित्तं० : व्याख्या चित्त का अर्थ है-चेतना । ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाली चेतना जिसमें हो, वह चित्तवान् कहलाता है, वह द्विपद, चतुष्पद और अपद भी हो सकता है। जो चेतना रहित हो, वह अचित्त कहलाता है, जैसे सोना, चांदी आदि। ___अप्पं वा...बहुं वा : व्याख्या अल्प और बहुत का अभिप्राय यहां प्रमाण और मूल्य दोनों से है। अतः अल्प और बहु की दृष्टि से चार विकल्प हो सकते हैं।
१७. (क) वही, पृ. ३२७ (ख) जो सो मुसावाओ, एस सव्वसाहूहिं गरहिओ, सक्कादिणोऽवि मुसावादं गरहंति । तत्थ सक्काणं पंचण्हं सिक्खावयाणं
मुसावाओ भारियतरोत्ति । एत्थ उदाहरणं एगेण उवासएण.... । एतेण कारणेण तेसिपि मुसावाओ भुजो सव्वसिक्खापदेहिंतो।
—जिनदासचूर्णि, पृ. २१८ (ग) सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः गर्हितो निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञाताऽपालनात् । —हारि. वृत्ति, पत्र १९७ १८. दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३२९ १९. चित्तं नाम चेतना भण्णइ, सा च चेतणा जस्स अत्थि तं चित्तमंतं भण्णइ, तं दुप्पयं चउप्पयं अपयं वा, होज्जा, अचित्तं नाम हिरण्यादि ।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २१८-२१९ २०. अप्पं नाम पमाणओ मुल्लओ वा, बहुमवि पमाणओ मुल्लओ ।
-वही, पृ. २१९