________________
दशवैकालिकसूत्र
[२७१] (तीर्थंकर) महावीर ने उन (अठारह आचारस्थानों) में प्रथम स्थान अहिंसा का कहा है, (क्योंकि) अहिंसा को (उन्होंने) सूक्ष्मरूप से (अथवा अनेक प्रकार से सुखावहा) देखी है। सर्वजीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है ॥ ८ ॥
२२२
[२७२] लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, साधु या साध्वी, जानते या अजानते, उनका (स्वयं) हनन न करे और न ही (दूसरों से) हनन कराए, (तथा हनन करने वालों की अनुमोदना भी न करे ।) ॥ ९ ॥ [२७३] सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए निर्ग्रन्थ साधु (या साध्वी) प्राणिवध को घोर (भयानक जानकर) उसका परित्याग करते हैं ॥ १० ॥
विवेचन—अहिंसा की प्राथमिकता और विशेषता —- प्रस्तुत तीन गाथाओं में प्रथम आचारस्थानरूप अहिंसा को प्राथमिकता और उसका पूर्णरूपेण आचरण निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी के लिए क्यों आवश्यक है ? इसका सहेतुक प्रतिपादन किया गया है। निउणा निउणं : अर्थ - (१) जिनदासचूर्णि के अनुसार- 'निउणा' पाठ मानकर उसे अहिंसा का विशेषण माना है, निपुणा का अर्थ किया है— सब जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग करना । जो साधु औद्देशिक आदि दोषों से युक्त आहार करते हैं, वे पूर्वोक्त कारणों से हिंसादोषयुक्त हो जाते हैं। अथवा 'निपुणा' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है—–— आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार के अपरिभोग (असेवन) तथा कृत-कारित आदि रूप से हिंसा के
हा कारण सूक्ष्म है। अगस्त्यचूर्णि के अनुसार 'निउणं' क्रियाविशेषण- पद है, जो 'दिट्ठा' क्रिया का विशेषण है । निपुणं का अर्थ है— सूक्ष्मरूप से ।१२
'ते जाणमजाणं वा०' : व्याख्या - प्रतिज्ञाबद्ध होने पर भी साधक से हिंसा दो प्रकार से होनी संभव है— (१) जान में (२) अनजान में। जो जानबूझ कर हिंसा करता है, उसमें स्पष्टतः रागद्वेष की वृत्ति प्रवृत्ति होती है, और जो अजाने में हिंसा करता है, उसकी हिंसा के पीछे प्रमाद. या अनुपयोग (असावधानता) होती है । ३
हिंसा का परित्याग करने के दो मुख्य कारण — प्रस्तुत गाथा (२७२) में निर्ग्रन्थों द्वारा हिंसा के परित्याग के दो मुख्य कारण बताए हैं— (१) सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, चाहे वह विपन्न एवं अत्यन्त दुःखी ही क्यों न हो। (२) सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख नहीं, मरण अत्यन्त दुःखरूप प्रतीत होता है, यहां तक कि मृत्यु का नाम सुनते ही भय के मारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । १४
द्वितीय आचारस्थान - सत्य (मृषावाद - विरमण )
१२.
२७४, अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥ ११॥
१४.
(क) 'निउणा' नाम सव्वजीवाणं, सव्वे वाहिं अणववाएण, जेणं उद्देसियादीणि भुंजंति, ते तहेव हिंसगा भवति ।
—जिनदासचूर्णि, पृ. २१७
— हारि. वृत्ति, पत्र १९६ —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १४४
(ख) आधाकर्माद्यपरिभोगतः कृत-कारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा ।
(ग्र) 'निपुणं' — सव्वपाकारं सव्वसत्तगता इति ।
१३. 'जाणमाणो' नाम जेसिं चिंतेऊण रागद्दोसभिभूओ घाएइ अजाणमाणो नाम अपदुस्समाणो अणुवओगेणं इंदियाइणावी पाते
घातयति ।
—जिनदासचूर्णि, पृ. २१७
(क) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. ४० (ख) दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३२४