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पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा
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___ [१०९] वहां (पूर्वोक्त मर्यादित भूमिभाग में) खड़े हुए उस साधु (या साध्वी) को देने के लिए (अपने चौके में से कोई गृहस्थ) पान (पेय पदार्थ) और भोजन लाए तो उसमें से अकल्पनीय (साधुवर्ग के लिए अग्राह्य) को ग्रहण (करने की इच्छा) न करे, कल्पननीय ही ग्रहण करे ॥ २७॥
[११०] यदि (साधु या साध्वी के पास) भोजन लाती हुई गृहिणी (या गृहस्थ) उसे नीचे गिराए तो साधु उस (आहार) देती हुई महिला (या पुरुष) को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए कल्पनीय (ग्रहण करने योग्य) नहीं है ॥ २८॥
[१११] प्राणी (द्वीन्द्रियादि जीव), बीज और हरियाली (हरी वनस्पति) को कुचलता (सम्मर्दन करती) हुई (आहार लाने वाली महिला दात्री) को असंयमकारिणी जान कर उस प्रकार का (सदोष आहार) उससे न ले ॥ २९॥
[११२-११३] इसी प्रकार एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालकर (संहरण कर), (सचित्त वस्तु पर) रखकर, सचिंत्त वस्तु का स्पर्श करके (या रगड़ कर) तथा (पात्रस्थ सचित्त) जल को हिला कर, (सचित्त पानी में) अवगाहन कर, (सचित्त जल को) चालित कर श्रमण (को देने) के लिए पान और भोजन लाए तो मुनि (उस आहार) देती हुई महिला को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करना शक्य (कल्प्य) नहीं है ॥ ३०-३१॥
[११४] पुराकर्म-कृत (साधु को आहार देने से पूर्व ही सचित्त जल से धोये हुए) हाथ से, कड़छी से अथवा बर्तन से (मुनि को भिक्षा) देती हुई महिला को मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए कल्पनीय (ग्रहण करने योग्य) नहीं है। (अर्थात् मैं ऐसा दोषयुक्त आहार नहीं ले सकता।) ॥ ३२ ॥
[११५] सचित्त जल से गीले (आर्द्र) हाथ से, कड़छी से अथवा बर्तन से (आहार) देती हुई (महिला) को साधु निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य (कल्पनीय) नहीं है ॥ ३३॥
[११६] सस्निग्ध हाथ से, कड़छी से या बर्तन से यदि कोई महिला आहार देने लगे तो उसे निषेध कर दे कि मेरे लिए ऐसा आहार ग्राह्य नहीं है ॥ ३४॥
__ [११७] सचित्त रज से भरे हुए हाथ से, कड़छी से या बर्तन से (साधु को) आहार देती हुई स्त्री को साधु निषेध कर दे कि ऐसा (सदोष आहार) लेना मेरे लिए शक्य (कल्प्य) नहीं है ॥ ३५॥
___ [११८] सचित्त मिट्टी से सने हुए हाथ, कड़छी या बर्तन से (साधु को आहार) देती हुई महिला को मुनि निषेध कर कि ऐसा आहार मैं नहीं ले सकता ॥ ३६॥ [११९] सचित्त ऊसर (क्षार) मिट्टी से भरे हुए हाथ, कड़छी या बर्तन से आहार देती हुई स्त्री से साधु कहे
किन्तु टीकासम्मत इन दो गाथाओं में 'एवं' और 'बोधव्वं' ये जो दो पद हैं, वे संग्रहगाथाओं के सूचक हैं।
जबकि चूर्णीकार इन १९ गाथाओं को मूलगाथाएं मानते हैं। दो गाथाएँ "एवं उदउल्ले ससिणिद्धे ससरक्खे मट्ठियाऊसे । हरिआले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥ ३३ ॥ गेरुअ-वनिय-सेढिय, सोरट्ठिय-पिट्ठ-कुक्कुसकए य । उक्किट्ठमसंसटुं संसढे चेव बोधव्वे ॥ ३३॥"
(प्रतियों में प्रचलित पाठ)