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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए तब उसके साथ-साथ साधु के लिए भी पका कर दिया जाने वाला आहार। यह उद्गम का चौथा दोष है। इसके तीन प्रकार हैं यावदर्थिकमिश्र, पाखण्डिमिश्र और साधुमिश्र। उद्गम दोष-निवारण का उपाय
१५३. उग्गमं से य पुच्छेजा, कस्सऽट्ठा ? केण वा कडं ? ।
सोच्चा निस्संकियं सुद्धं पडिगाहेज संजए ॥ ७१॥ [१५३] संयमी साधु (पूर्वोक्त आहारादि के विषय में शंका होने पर) उस (शंकित आहार) का उद्गम पूछे कि यह किसके लिए (या किसलिए) बनाया है ? किसने बनाया है ? (दाता से प्रश्न का उत्तर) सुनकर निःशंकित और शुद्ध (एपणाशुद्ध जान कर) आहार ग्रहण करे ॥ ७१ ॥
विवेचनउद्गमपृच्छा करके शुद्ध आहारग्रहण का विधान आहारग्रहण करते समय साधु को आहार के विषय में किसी प्रकार की अशुद्धि की शंका हो तो उस आहार की उत्पत्ति के विषय में दाता से पूछे कि यह आहार क्यों और किसलिए तैयार किया है ? अगर गृहस्वामी से पूर्णतया निर्णय न हो सके तो किसी अबोध बालकबालिका आदि से पूछ कर स्पष्ट निर्णय कर ले, किन्तु शंकायुक्त आहार कदापि ग्रहण न करे। पूर्णतया-निःशंकित हो जाए और उक्त आहार एषणाशुद्ध हो तो ग्रहण करे। आहार के विषय में उद्गमदोष के निवारण का उपाय इस गाथा में बताया गया है।६८ वनस्पति-जल-अग्नि पर निक्षिप्त आहारग्रहणनिषेध
१५४. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
पुप्फेसु होज उम्मीसं बीएसु हरिएसु वा ॥७२॥ १५५. तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।
बेतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥७३॥ १५६. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।
उदगम्मि होज निक्खित्तं उत्तिंग-पणगेसु वा ॥ ७४॥ १५७. तं भवे भत्त-पाणं तु संजयाण अकप्पियं ।।
देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७५॥ १५८. असणं पाणगं वा वि खाइमं साइमं तहा ।।
अगणिम्मि* होज निक्खित्तं, तं च संघट्टिया दए ॥ ७६ ॥
६७. (क) दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. ४४५-४४६
(ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १९० ६८. दशवैकालिकसूत्रम् (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १९८ * पाठान्तर—'तेउम्मि हुज'