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दशवकालिकसूत्र कहलाते हैं। इस कारण अग्राह्य है। सचित्त रज से लिप्त वस्तु भी अग्राह्य
१८४. तहेव सत्तु-चुण्णाई कोल-चुण्णाई आवणे ।
___ सक्कुलिं फाणियं पूर्य, अन्नं वा वि तहाविहं ॥ १०२॥ १८५. विक्कायमाणं पसढं, रएण परिफासियं ।
देंतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १०३॥ [१८४-१८५] इसी प्रकार जौ आदि सत्तु का चूर्ण (चून), बेर का चूर्ण, तिलपपड़ी, गीला गुड़ (राब), पूआ तथा इसी प्रकार की अन्य (लड्डु, जलेबी आदि) वस्तुएं, जो दुकान में बेचने के लिए, बहुत समय से खुली रखी हुई हों और (सचित्त) रज से चारों ओर स्पृष्ट (लिप्त) हों, तो साधु देती हुई उस स्त्री को निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता ॥ १०२-१०३॥
विवेचन सचित्त रज से भरी बाजारू वस्तु-ग्रहण निषेध–प्रस्तुत दो सूत्र गाथाओं (१८४-१८५) में बाजार में बिकने के लिए हलवाइयों आदि की दुकानों पर अनेक दिनों से खुले में रखी हुई एवं रज से लिपटी वस्तुओं के लेने का निषेध किया गया है। इन्हें लेने का निषेध इसलिए किया गया है कि ऐसी वस्तुओं पर केवल सचित्त रज ही नहीं, मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं, कीड़े और चींटियां चारों ओर चढ़ी होती हैं, वे मर भी जाती हैं, कई बार बहुत दिनों से पड़ी हुई गीली खाद्य वस्तुओं में लीलण-फूलण जम जाती है। वे अन्दर से सड़ जाती हैं, तो उनमें लट, धनेरिया आदि कीड़े पड़ जाते हैं। ऐसी गंदी.और सड़ी-गली चीजों का सेवन करने से हिंसा के अतिरिक्त साधु-साध्वी को अनेक बीमारियां होने की सम्भावना भी है। .... ___ 'सत्तु-चुण्णाई' आदि पदों का अर्थ सत्तु-चुण्णाई सत्तु और चून, सत्तू। कोल-चुण्णाइं—बेर का चूर्ण अथवा सत्तू। सक्कुलिं–(१) तिलपपड़ी, (२) सुश्रुत के अनुसार-शष्कुली-कचौरी। पसदं (१) प्रसह्यअनेक दिनों तक रखी हुई होने से प्रकट या प्रकट (खुले) में रखे हुए, (२) प्रशठ बहुत दिनों से रखे हुए होने से सड़े हुए, (३) प्रसृत-बहुत दिनों तक न बिकने के कारण यों हो पड़े हुए।
-हारि. वृत्ति, पत्र १७६ -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १८४ —शालिग्राम निघण्टु, पृ.८९०
७६. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २०८
(ख) दशवै. (गुजराती अनुवाद संतबालजी), पृ. ५५ (ग) 'सन्निरं' पत्तसागं पत्रशाकम् । (घ) 'तुंबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं अंतो त्वम्लानम् ।'
(ङ) 'अलाबुः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला ।' ७७. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २१० (ख) 'सत्तुया जवातिधाणाविकारो, 'चुण्णाई' अण्णे पिट्ठविसेसा ।'
'सक्तुचूर्णान्' सक्तून् । (ग) 'कोलाणि—बदराणि' तेसिं चुण्णो—कोलचुण्णाणि ।
'कोलचूर्णान् बदरसक्तून् ।' (घ) 'सक्कुली तिलपप्पडिया ।'
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. १७७ - हारि. टीका, पत्र १७६ -जिन. चूर्णि, पृ. १८४ -हारि. वृत्ति, पत्र १७६ -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११७