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पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा
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[१८०-१८१-१८२] यदि आहारदात्री श्रमण के लिए निसैनी, फलक (पाटिया) या पीठ (चौकी) को ऊंचा करके मंच (मचान), कीलक (खूटी, कीला या स्तम्भ) अथवा प्रासाद पर चढ़े, (और वहां से भक्त-पान लाए तो साधु या साध्वी उसे ग्रहण न करे), क्योंकि निसैनी आदि द्वारा दुःखपूर्वक चढ़ती हुई (वह स्त्री) गिर सकती है, उसके हाथ-पैर आदि टूट सकते हैं। (उसके गिरने से नीचे दब कर) पृथ्वी के जीवों की तथा पृथ्वी के आश्रित रहे हुए त्रस जीवों की हिंसा हो सकती है। अतः ऐसे महादोषों को जान कर संयमी महर्षि मालापहृत (-दोषयुक्त) भिक्षा नहीं ग्रहण करते ॥ ९८-९९-१००॥
विवेचन मालापहृत : स्वरूप और प्रकार—प्राचीनकाल में नमी,.सीलन अथवा जीव-जन्तु और चींटी, चूहा, दीमक आदि से बचाने के लिए खाद्य-पदार्थों को मंच या पडछित्ती आदि पर, अथवा किसी ठंडे बर्तन या कोठी आदि में या भूमिगृह या तहखाने में रखते थे, इस प्रकार के विषम स्थान में कष्ट से पहुंच कर लाया हुआ आहार मालापहृत दोषयुक्त है। इसके तीन प्रकार हैं—(१) ऊर्ध्व-मालापहृत, (२) अधो-मालापहृत और (३) तिर्यग्-मालापहृत। यहां केवल ऊर्ध्वमालापहृत का उल्लेख है। पिछली सूत्रगाथाओं में अधोमालापहृत और तिर्यग्मालापहृत दोष की झांकी 'गंभीरं झुसिरं चेव' इन दो पदों से दी है। प्रस्तुत गाथाओं में निःश्रेणी, फलक और पीठ ये तीन मंच और प्रासाद पर चढ़ने के साधन हैं और मंच आदि तीन आरोह्य स्थान हैं।
___ मंच : दो अर्थ (१) शयन करने की खाट (मांचा) और (२) चार लट्ठों को बांध कर बनाया हुआ मचान, अथवा लटान या टांड।
कोलं : तीन अर्थ (१) खीला या खूटी, (२) खम्भा स्तम्भ और (३) भूमि के साथ लगे हुए खम्भे पर रखा हुआ काष्ठ फलक । आमक वनस्पति-ग्रहणनिषेध
१८३. कंदं मूलं पलंबं वा आमं छिन्नं च सन्निरं ।
तुंबागं सिंगबेरं च आमगं . परिवजए ॥ १०१॥ [१८३] (साधु-साध्वी) अपक्व कन्द, मूल, प्रलम्ब (ताड़ आदि लम्बा फल), छिला हुआ पत्ती का शाक, घीया (लौकी) और अदरक ग्रहण न करे ॥ १०१॥
विवेचन आमक कन्द आदि : अर्थ और अग्राह्यता का कारण आमक—कच्चे (अपक्व) कन्दसूरण आदि। मूल मूला आदि। फल आम आदि के कच्चे फल। सन्निरं—वथुआ, चंदलिया, पालक आदि का छिला हुआ पत्तीवाला साग (पत्रशाक)। तुम्बाकं—जिसकी त्वचा म्लान हो गई हो, किन्तु अंदर का भाग अम्लान हो, वह तुम्बाक कहलाता है। हिन्दी में इसे कबु, घीया, लौकी या राम-तरोई कहते हैं। बंगला में लाऊ कहते हैं। शृंगबेर—अदरक। ये जब तक शास्त्रपरिणत न हों, तब तक भले ही कटे हुए या टुकड़े किये हुए हों, सचित्त
७५. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २४१-२४२
(ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २०५ (ग) एतं भूमिघरादिसु अहेमालोहडं । मंचो सयणीयं चडणमंचिका वा । खीलो भूमिसमाकोट्टितं कटुं । पासादो समालको घरविसेसो । एताणि समणट्ठाए दाया चडेज्जा ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११७