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दशवैकालिकसूत्र
. [२४४-२४५] कदाचित् कोई एक (अकेला साधु सरस आहार) प्राप्त करके इस लोभ से छिपा लेता है कि मुझे मिला हुआ यह आचार गुरु को दिखाया गया तो वे देख कर स्वयं ले लें, मुझे न दें, (परन्तु) ऐसा अपने स्वार्थ को ही बड़ा (सर्वोपरि) मानने वाला स्वादलोलुप (साधु) बहुत पाप करता है और वह सन्तोषभाव से रहित हो जाता है। (ऐसा साधु) निर्वाण को नहीं प्राप्त कर पाता ॥३१-३२॥
[२४६-२४७] कदाचित् कोई एक साधु विविध प्रकार के पान और भोजन (भिक्षा में) प्राप्त कर (उसमें से) अच्छा-अच्छा (सरस पदार्थ कहीं एकान्त में बैठ कर) खा जाता है और विवर्ण (वर्णरहित) एवं नीरस (तुच्छ भोजन-पान) को (स्थान पर) ले आता है। (इस विचार से कि) ये श्रमण जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (सार-रहित) आहार सेवन करता है, रूक्षवृत्ति एवं जैसे-तैसे आहार से सन्तोष करने वाला है ॥३३-३४॥
[२४८] ऐसा पूजार्थी, यश-कीर्ति पाने का अभिलाषी तथा मान-सम्मान की कामना करने वाला साधु बहुत पापकर्मों का उपार्जन करता है और मायाशल्य का आचरण करता है ॥ ३५ ॥
विवेचन आहार के परिभोग में मायाचार सम्बन्धी परिचर्चा प्रस्तुत ५ सूत्र गाथाओं (२४४ से २४८ तक) में स्वार्थी स्वादलोलप एवं मायाचारी साध की मनोवत्ति का चित्रण प्रस्तत किया गया है।
दो प्रकार की मायाचार-प्रवृत्ति—(१) भिक्षाप्राप्त सरस आहार को गुरु से छिपा कर सारा का सारा आहार स्वयं सेवन करने की प्रवृत्ति, (२) दूसरी, सरस श्रेष्ठ आहार को एकान्त में सेवन करके उपाश्रय में नीरस आहार लाना है। दोनों में से प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति वाला साधु निजी स्वार्थ को प्रमुखता देकर बहुत पाप उपार्जित करता है। वह सदैव नीरस आहार से असन्तुष्ट रहता है, मोक्ष से दूर हो जाता है। दूसरे प्रकार की प्रवृत्ति वाला साधु बहुत मायाचार करता है। वह प्रशंसा और प्रसिद्धि पाने की दृष्टि से ऐसा करता है, ताकि वे उसे आत्मार्थी, सन्तोषी, नीरसाहारी, रूक्षजीवी समझें, ऐसे साधु की मनोवृत्ति का स्पष्ट चित्रण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—'वह पूजासत्कार पाने का इच्छुक, यशोलिप्सु एवं सम्मान-कामना से प्रेरित है। वह तीव्र मायाशल्य का सेवन करता है, जिसके फलस्वरूप अनेक पाप-कर्मों का बन्ध कर लेता है।'
___ 'विणिगृहई' आदि विशेष शब्दों के अर्थ विणिगृहई नीरस वस्तु को ऊपर रख कर सरस वस्तु को ढंक लेता है। आययट्ठी : तीन अर्थ (१) आयातार्थी मोक्षार्थी । (२) आयति अर्थी —आयति—आगामी काल के हित का अर्थी—अभिलाषी। (३) आत्मार्थी। लूहवित्ती-रूक्षवृत्ति—(१) रूक्षभोजी, (सरस, स्निग्ध आहार की लालसा से रहित) और (२) संयमवृत्ति वाला। पसवई उत्पन्न या उपार्जन करता है। पूयणट्ठा—पूजा चाहने वाला अर्थात् वस्त्र-पात्रादि से सत्कार चाहने वाला। माणसम्माणकामए-वन्दना, अभ्युत्थान (आने पर खड़ा हो जाना) आदि मान है और वस्त्र-पात्रादि का लाभ सम्मान है। अथवा एकदेशीय पूजाप्रतिष्ठा मान है, और सर्व प्रकार से पूजाप्रतिष्ठा सम्मान है मान-सम्मान का अभिलाषी मानसम्मान-कामुक है।
३०. (क) विविहेहिं पगारेहिं गृहति विणिगृहति, अप्पसारियं करेइ, अन्नेण अंतपंतेण ओहाडेति।
-जिनदासचूर्णि, पृ. २०१ (ख) विनिगूहते—अहमेव भोक्ष्ये, इत्यन्त-प्रान्तादिनाऽऽच्छादयति।
-हारि. वृत्ति, पत्र १८७ (ग) आयतो मोक्खो, तं आययं अत्थयतीति आययट्ठी।
-जिन. चूर्णि, पृ. २०२