________________
दशवैकालिकसूत्र
(१) अदीणे वित्तिमेसेज्जा — गृहस्थ के सामने अपनी दीनता - हीनता प्रदर्शित करके या गिड़गिड़ा कर या लाचारी बताकर भिक्षाचर्या न करे, न आहार की याचना करे, क्योंकि दीनता प्रकट करने से आत्मा का अध: पतन और जिनशासन की लघुता होती है। मन में दीनता आ जाने से शुद्ध आहार की गवेषणा नहीं हो सकती। किसी प्रकार से आहार से पात्र भरने की वृत्ति आ जाती है। दीनता 'त्याग' नामक श्रमणधर्म को खण्डित कर देती है।
(२) न विसीएज्ज - कदाचित् शुद्ध गवेषणा करने पर भी आहार- पानी न मिले तो मन में किसी प्रकार का विषाद न करे। क्योंकि विषाद करने से आर्त्तध्यान होता है, क्षान्तिगुण का ह्रास हो जाता है।
(३) अमुच्छिओ - साधु सरस स्वादिष्ट आहार में मूच्छित — आसक्त — न हो, क्योंकि इससे निर्लोभा (मुक्ति) का गुण लुप्त हो जाता है। रसलोलुप बनने पर साधु सरस आहार मिलने वाले घरों में जाएगा, ऐसी स्थिति
शुद्धि नहीं रह सकेगी।
(४) मायणे - साधु को अपने आहार के परिमाण का जानकार होना आवश्यक है, क्योंकि अधिक आहार लाने पर उसका परिष्ठापन करने से असंयम होगा। संयम नामक श्रमणधर्म का ह्रास होगा।
२०६
(५) एषणारए - भिक्षाचर्या का अभिप्राय एषणाशुद्ध आहार लाना है। अतः भिक्षाचरी के समय पंचेन्द्रियविषयों या अन्य बातों अथवा गप्पों से ध्यान हटाकर केवल एषणा में ही ध्यान रखना है, अन्यथा वह अहिंसादि धर्म से विचलित हो जाएगा।
अदितस्स न कुप्पेजा—गृहस्थ के यहां जाने पर साधु अनेक प्रकार की शयन, आसन, वस्त्र, विविध सरस आहार आदि वस्तु प्रत्यक्ष देखता है, परन्तु यदि गृहस्थ की भावना नहीं है तो वह नहीं देता। उसकी इच्छा है, वह दे या न दे। किन्तु न देने पर साधु उसे न झिड़के, न डांटे-फटकारे, या न ही गाली-गलौज करे, न किसी प्रकार का शाप दे। क्योंकि ऐसा करने से उसका क्षमा नामक श्रमणधर्म लुप्त हो जाएगा। अतः साधु न देने पर कुछ भी बोले बिना या मन में द्वेष, घृणा या रोष का भाव लिए बिना चुपचाप वहां से निकल जाए। २८
वंदमाणं न जाइज्जा— चूर्णिद्वय और हारि. वृत्ति में इसकी व्याख्या की गई है— वन्दना करने वाले स्त्री, पुरुष, बालक अथवा वृद्ध पुरुष से साधु किसी प्रकार की याचना न करे, क्योंकि इस प्रकार याचना करने से वन्दना करने वाले लोगों के हृदय में साधु के प्रति श्रद्धा-भक्ति समाप्त हो जाती है। साधु मन में यह न सोचे कि इसने मुझे वन्दन किया है, इसलिए यह अवश्य ही भद्र है, इससे याचना करनी चाहिए, किन्तु सभी सम्पन्न नहीं होते और जो सम्पन्न होते हैं, वे सभी भावुक नहीं होते। किसी की परिस्थिति या भावना अनुकूल नहीं होती, वह साधु के वचनों का अनादर कर सकता है, अथवा साधु के स्वाभिमान को चोट पहुंचा सकता है। यदि याचना करने पर भी वन्दना करने वाला कोई गृहस्थ निर्दोष आहार- पानी न दे तो उसे झिड़कना या कठोर वचन नहीं कहना चाहिए। दोनों चूर्णियों तथा टीका में 'वंदमाणो न जाएज्जा' पाठान्तर मिलता है। तात्पर्य यह है कि साधु गृहस्थ की प्रशंसा करता
२७.
२८.
(क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २७७
(ख) दशवै. ( आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ५२०
(क) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २७९
(ख) पण्डिए इति पदेन सदसद्विवेकशालित्वं तेन च मनोविजयित्वमावेदितम् ।
- दश. (आ.म.मं. टीका ), भाग १, पृ. ५२२