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दशवैकालिकसूत्र
मंथूणि फलमंणि: अर्थ और स्पष्टीकरण - बीजमन्थ—– जौ, उड़द, मूंग, गेहूं आदि के चूर्ण (चूरे) को 'बीजमंथु' कहते हैं। बीजों के चूरे या कूट में अखण्ड बीज (दाना) रहना सम्भव है, इसी कारण इसे अपक्व अशस्त्रपरिणत, अतएव सचित्त माना है। फलमन्थ : दो अर्थ - (१) बेर आदि के फलों का चूर्ण (चूरा या कूट), (२) बेर का चूर्ण या कूट । बिहेलगं—बिभीतक बहेड़ा का फल, जो त्रिफला में मिलता है, दवा के काम में आता है। यह अखण्ड फल सचित्त है, इसका कूटा हुआ चूर्ण अचित्त है। पियालं प्रियाल : तीन अर्थ (१) चिरौंजी का फल, (२) रायण का फल, (३) द्राक्षा । २५
सामुदानिक भिक्षा का विधान
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[२३८] भिक्षु समुदान (सामूहिक) भिक्षाचर्या करे। (वह) उच्च और नीच सभी कुलों में (भिक्षा के लिए) जाए, (किन्तु) नीचकुल (घर) को छोड़ (लांघ) कर उच्चकुल (घर) में न जाए ॥ २५ ॥
२३८. समुदाणं चरे भिक्खू, कुलं उच्चावयं सयां । नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए ॥ २५॥
विवेचन—– भिक्षाचर्या में समभाव की दृष्टि रखे – प्रस्तुत सूत्रगाथा में साधु-साध्वी को भिक्षाचर्या में समभाव की दृष्टि रखने हेतु समुदान भिक्षा का निर्देश किया गया है। एक ही या दो-तीन घरों से ही भिक्षा ली जाए तो उसमें एषणाशुद्धि रहनी कठिन है। साधु की स्वादलोलुपता भी बढ़ सकती है। इसलिए अनेक घरों से थोड़ाथोड़ा लेने से और सधन-निर्धन - मध्यम सभी घरों से आहार- पानी लेने से एषणाशुद्धि और समतावृद्धि होती है।
उच्च-नीच कुल का अर्थ- जो घर जाति से उच्च, धन से समृद्ध हों और मकान भी विशाल हो, ऊंचा हो तथा जहां मनोज्ञ आहार मिले, वह कुल (घर) 'उच्च' कहलाता है। जो घर जाति से नीच हो, धन से समृद्ध न हो और मकान भी विशाल एवं ऊंचा न हो, जहां मनोज्ञ आहार न मिलता हो, वह कुल (घर) नीचकुल है। साधु इस प्रकार नीचकुल को छोड़ कर या लांघ कर ऊंचे कुलों में भिक्षार्थ न जाए। यहां पर यह भी स्मरण रखना होगा कि जुगुप्सित कुल में भिक्षा के लिए जाना निषिद्ध है।
नीच और 'अवच' तथा 'ऊसढ' (उच्छ्रित) और उच्च दोनों एकार्थक हैं । २६
२५.
२६.
(क) बीयमंथू — जव - मास- मुग्गादीणि । फलमंधू —— बदर - अबरादीणं भणइ । (ख) फलमधून —— बदरचूर्णान् । बीजमन्थूं—–— यवादिचूर्णान् ।
(ग) बिभेलगं— भूतरुक्खफलं, (बिभीतकफलम् ) ।
(घ) पियालं पियालरुक्खफलं वा ।
— जिन. चूर्ण, पृ. १९८
हारि. वृत्ति, १९८ अ. चूर्णि, पृ. १३० अ. चूर्ण, पृ. १३०
(ङ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २८४
(च) दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. ५१७ - ५१८
(क) समुयाणीयंति— समाहरिज्जंति तदत्थं चाउलसाकतो रसादीणि तदुपसाधणाणीति अण्णमेव 'समुदाणं चरे'
गच्छेदिति। अहवा पुव्वभणितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धमण्णं समुदाणीयं चरे ।
(ख) समुदाया णिज्जइत्ति—थोवं थोवं पडिवज्जइ ति बुत्तं भवइ ।
(ग) जिनदास चूर्णि, पृ. १९८ - १९९
(घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २८४
अ.चू., पृ. १३१ — जिन. चूर्णि, पृ. १९८