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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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चाउलं पिटुं आदि शब्दों का अर्थ और स्पष्टीकरण चाउलं पिटुं : दो अर्थ (१) अभिनव (तत्काल के) और अनिंधन (बिना पकाये हुए) चावलों का (उपलक्षण से गेहूं आदि अन्य अनाजों का) पिष्ट आटा अथवा (२) भुने हुए चावलों का पिष्ट । ये दोनों जब तक अपरिणत हों, तब तक सचित्त हैं।२९
वियडं वा तत्त-निव्वुडं : चार रूप : चार अर्थ (१) विकटं तप्तनिवृतम् इन दोनों को एक पद. मान कर अर्थ किया गया है, जो उष्णोदक पहले गर्म किया हुआ हो, किन्तु कालमर्यादा व्यतीत होने पर पुनः सचित्त हो गया हो। वर्तमान परम्परानुसार ग्रीष्मकाल में ५ पहर के बाद, शीतकाल में ४ पहर के बाद और वर्षाकाल में तीन पहर के बाद अचित्त उष्ण जल भी सचित्त हो जाता है, ऐसी कितने ही आचार्यों की मान्यता है, पर मूल आगमों के पाठों में ऐसा संकेत नहीं। (२) विकृतं अन्तरिक्ष और जलाशय का जल, जो दूसरी वस्तु के मिश्रण से विकृत होने से अचित्त-निर्जीव हो जाता है, जैसा कि आचारांग चूला में विकृत जल के रूप में द्राक्षा आदि का २१ प्रकार का पानक (धोवन) ग्राह्य कहा है।
तप्ताऽनिर्वृत—जो जल तप्त (गर्म किया हुआ) तो हो, किन्तु थोड़ा गर्म किया हुआ होने से पूर्णतया अनिर्वृत-शस्त्रपरिणत न हुआ हो, वह मिश्र जल है।२२
पूइ-पिन्नागं : दो रूप : पांच अर्थ (१) पूति–पोई का साग और पिण्याक–तिल, अलसी, सरसों आदि की खली। (२) पूतिपिण्याक-सड़ी हुई दुर्गन्धित खली। (३) सरसों की पिट्ठी। (४) सरसों का पिण्ड (भोज्य)। (५) सरसों की खली पिण्याक।
कविढं आदि के अर्थ कविटुं—कपित्थ या कैथ का फल, जिसका वृक्ष कंटीला होता है, जिसके फल बेल के आकार के कसैले या खट्टे होते हैं। माउलिंग : मातुलिंग-बिजौरा। मूलकं : मूलक–पत्ते सहित मूली। मूलगत्तियं मूलकत्तिका कच्ची मूली का गोल टुकड़ा। वृत्ति के अनुसार मूलवत्तिका कच्ची मूली।"
२१. (क) चाउलं पिट्ठ-लोट्ठो, तं अभिणवमणिंधणं सच्चित्तं भवति।
-अ. चू., पृ. २३० (ख) चाउलं पिटुं भटुं भण्णइ, तमपरिणतधम्मं सचित्तं भवति ।
जिन. चूर्णि, पृ. १९८ २२. (क) वियडं उण्होदगं ।
-अ. चू., पृ. १३० - (ख) तप्तनिवृतं क्वथितं तत् शीतीभूतम् ।
—हारि. टीका, पत्र १८५ (ग) वियड त्ति पानकाहारः । (विकृतम् जलं)
-ठाणांग ३/३४९ वृत्ति (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २८२ (ङ) तप्ताऽनिर्वृतं वा अप्रवृत्तत्रिदण्डम् ।
-हारि. टीका, पृ. १८५ २३. (क) पूति-पिण्याकं सर्षपखलम् ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १८५ (ख) पिण्याकः खलः ।
-सूत्रकृ. २/६/२६ प. ३९६ वृ. (ग) पूतियं नाम सिद्धत्थपिण्डगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दरभिन्ना वा । —जिन. चूर्णि, पृ. १९८
(घ) पूइ-पोई-पिण्याकतिल कल्कस्थूणिकाशुष्कशाकानि सर्वदोषप्रकोपणानि। -सुश्रुत सू. ४६/३२१ २४. (क) कपित्थं कपित्थफलम् । मातुलिंगं च बीजपूरकं । मूलवर्तिकां-मूलकन्द-चक्कलिम् ।
-हारि. टीका, पत्र १७५ (ख) मूलओ—सपत्तपलासो, मूलकत्तिया—मूलकंदा चित्तलिया भण्णइ । —जिनदासचूर्णि, पृ. १९८