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दशवकालिकसूत्र २०९. अह कोइ न इच्छेजा, तओ भुंजेज एगओ ।
आलोए भायणे साहू, जयं अपरिसाडियं ॥ १२७॥ २१०. तित्तगं व कडुयं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा ।
एय लद्धमनट्ठपउत्तं, महुघयं व भुंजेज संजए ॥ १२८॥ २११. अरसं विरसं वा वि सूइयं वा असूइयं ।
ओल्लं वा जइ वा सुक्कं, मंथु-कुम्मासभोयणं ॥ १२९॥ २१२. उप्पन्नं नाइहीलेजा अप्पं वा बहु फासुयं ।
मुहालद्धं मुहाजीवी भुंजेज्जा दोसवज्जियं ॥ १३०॥ [२००] कदाचित् भिक्षु शय्या (आवासस्थान स्थानक या उपाश्रय) में आकर भोजन करना चाहे तो पिण्डपात (भिक्षाप्राप्त आहार) सहित (वहां) आकर भोजन करने की भूमि (निर्जीव निरवद्य या शुद्ध है या नहीं ? इस) का प्रतिलेखन (निरीक्षण) कर ले ॥ ११८॥
[२०१] (तत्पश्चात्) विनयपूर्वक (उपाश्रय) में प्रवेश करके गुरुदेव के समीप आए और ईर्यापथिक सूत्र को पढ़ कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे ॥ ११९॥
[२०२-२०३] (उसके पश्चात्) वह संयमी साधु (भिक्षा के लिए) जाने-आने में और भक्त-पान लेने में (लगे) समस्त अतिचारों का क्रमशः उपयोगपूर्वक चिन्तन कर ऋजुप्रज्ञ और अनुद्विग्न संयमी अव्याक्षिप्त (अव्यग्र) चित्त से गुरु के पास आलोचना करे और जिस प्रकार से भिक्षा ली हो, उसी प्रकार से (गुरु से निवेदन करे)
॥१२०-१२१॥ [२०४-२०५] यदि आलोचना सम्यक् प्रकार से न हुई हो, अथवा जो पहले-पीछे की हो, (आलोचना क्रमपूर्वक न हुई हो) तो उसका पुनः प्रतिक्रमण करे, (वह) कायोत्सर्गस्थ होकर यह चिन्तन करे___अहो! जिनेन्द्र भगवन्तों ने साधुओं को मोक्षसाधना के हेतुभूत संयमी शरीर-धारण (रक्षणपोषण) करने के लिए निरवद्य (भिक्षा-) वृत्ति का उपदेश दिया है ॥ १२२-१२३॥
[२०६] (इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को) नमस्कार-मन्त्र के द्वारा पूर्ण (पारित) करके जिनसंस्तव (तीर्थंकरस्तुति) करे, फिर स्वाध्याय का प्रस्थापन (प्रारम्भ) करे, (फिर) क्षणभर विश्राम ले ॥ १२४॥.
। [२०७] विश्राम करता हुआ कर्म-निर्जरा के लाभ का अभिलाषी (लाभार्थी) मुनि इस हितकर अर्थ (बात) का चिन्तन करे "यदि कोई भी साधु (आचार्य या साधु) मुझ पर (मेरे हिस्से के आहार में से कुछ लेने का) अनुग्रह करें तो में संसार-समुद्र से पार हो (तिर) जाऊं।" ॥ १२५॥
[२०८] वह प्रीतिभाव से साधुओं को यथाक्रम से निमंत्रण (आहार ग्रहण करने की प्रार्थना) करे, यदि उन (निमंत्रित साधुओं) में से कोई (साधु भोजन करना) चाहें तो उनके साथ भोजन करे ॥ १२६॥
[२०९] यदि कोई (साधु) आहार लेना न चाहे, तो वह साधु स्वयं अकेला ही प्रकाशयुक्त (खुले) पात्र में, (हाथ और मुंह से आहार-कण को) नीचे न गिराता हुआ यतनापूर्वक भोजन करे ॥ १२७॥
[२१०] अन्य (अपने से भिन्न-गृहस्थ) के लिए बना हुआ, (आगमोक्त विधि से) उपलब्ध जो (आहार