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दशवकालिकसूत्र महुघयं व भुंजेज जैसे मधु (शहद) और घृत दोनों सुरस होते हैं, इस दृष्टि से व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक उनका सेवन कर लेता है, वैसे ही अस्वादवृत्ति वाला साधु नीरस भोजन को भी सुरस मान कर सेवन करे। अथवा जैसे मधु और घी को बांए जबड़े से दाहिने जबड़े की ओर ले जाने की आवश्यकता नहीं रहती, व्यक्ति सीधा ही गले उतार लेता है, वैसे ही साधु नीरस आहार को भी मधुघृत की तरह सीधा निगल ले।"
मुहाजीवी-मुधाजीवी : अर्थ, लक्षण और व्याख्या : दो अर्थ (१) जो जाति, कुल आदि के आधार पर आजीविका करके नहीं जीता, (२) अनिदानजीवी निःस्पृह और अनासक्तभाव से जीने वाला। अथवा भोगों का संकल्प किये बिना जीने वाला। प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका विशेष अर्थ यह भी हो सकता है कि जो किसी प्रकार का उपदेश आदि का बदला चाहे बिना निःस्पृह भाव से जो भी आहार मिले, उससे जीवननिर्वाह करने वाला हो। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण प्रसिद्ध है "श्रेष्ठ धर्म की पहिचान उस धर्म के गुरु से ही हो सकती है, जिस धर्म का गुरु निःस्पृह और निःस्वार्थ बुद्धि से आहारादि लेकर जीता है, उसी का धर्म सर्वश्रेष्ठ होगा।" इस विचार से प्रेरित होकर राजा ने घोषणा कराई कि राजा भिक्षाचरों को मोदकों का दान देना चाहता है। इस घोषणा को सुन कर अनेक भिक्षाचर दान लेने आए। राजा ने उनसे पूछा—आप लोग किस प्रकार अपना जीवननिर्वाह करते हैं ? उनमें से एक भिक्षु ने कहा मैं कथक हूं अतः कथा कह कर मुख से निर्वाह करता हूं। दूसरे ने कहा मैं सन्देशवाहक हूं, अतः पैरों से निर्वाह करता हूं। तीसरा बोला—में लेखक हूं, अतः हाथों से निर्वाह करता हूं। चौथे ने कहा-मैं लोगों का अनुग्रह प्राप्त करके निर्वाह करता हूं और अन्त में पांचवें भिक्षु ने कहा मैं संसार से विरक्त मुधाजीवी निर्ग्रन्थ हूं। मैं निस्पृह भाव से संयमनिर्वाह के लिए, मोक्षसाधना के लिए जीता हूं, उसी के लिए किसी प्रकार अधीनता या प्रतिबद्धता स्वीकार किये बिना, जो भी आहार मिल जाए उसी में सन्तुष्ट रहता हूं। यह सुन कर राजा अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसे मुधाजीवी साधु जान कर उसके पास प्रव्रजित हो गया।
मुहालद्धं जो यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र-औषधि के द्वारा उपकार–सम्पादन किये बिना प्राप्त हो। मुधादायी और मुधाजीवी की दुर्लभता और दोनों की सुगति
२१३. दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । . मुहादाई मुहाजीवी दो वि गच्छंति सोग्गइं ॥ १३१॥
–त्ति बेमि ॥
॥पिंडेसणाए पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ ९८. (ख) तं बहु मण्णियव्वं, जं विरसमवि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मन्नियव्वं । —जिन. चू., पृ. १९० (ग) अल्पमेतन्न देहपूरकमिति किमनेन ? बहु वा असारप्रायमिति।
-हारि. वृत्ति, पत्र १८१ ९९. महुघते व भुंजेज-जहा महु घतं कोति सुरसमिति सुमुहो भुंजति, तहा तं (असोहणमवि) सुमुहेण भुंजितव्वं । अहवा महुघतमिव हणुयातो हणुयं असंचारतेण...।।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. १२४ १००. (क) मुधाजीवि नाम जं जातिकलादीहिं आजीवणविसेसेहिं परं न जीवति । -जिनदासचूर्णि, पृ. १९० (ख) मुधाजीवि सर्वथा अनिदानजीवी, जात्याधनाजीवक इत्यन्ये ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १८१ (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २५६ १०१. वेंटलादिउवगारवजितेण मुहालद्धं ।
अ. चू., पृ. १२४