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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणां
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सेज्जा, निसीहियाए, गोयरे पदों के विशेषार्थ — ये तीनों पारिभाषिक शब्द हैं। इनके प्रचलित अर्थों से भिन्न अर्थ यहां अभिप्रेत है। सेज्जा : शय्या — उपाश्रय, मठ, कोष्ठ और वसति । निसीहिया : नैषीधिकी —— स्वाध्यायभूमि । दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित 'नसिया' शब्द इसी का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल में स्वाध्यायभूमि उपाश्रय से दूर एकान्त में, कोलाहल से रहित स्थान में या वृक्षमूल में चुनी जाती थी।
समावन्नो य गोयरे —— गोचर अर्थात् गोचरी - भिक्षाचरी के लिए गया हुआ ।'
अयावयट्ठा : अयावदर्थ अपर्याप्त—– जितना खाद्यपदार्थ चाहिए, उतना नहीं अर्थात् — पेटभर नहीं, क्षुधानिवारण में कम ।
कारणमुप्पन्न : दो आशय – यहां 'कारण' शब्द से दो आशय प्रतीत होते हैं— (१) उत्तराध्ययनसूत्रोक्त आहार करने के ६ कारणों में से कोई कारण उत्पन्न हो, अथवा (२) अगस्त्यचूर्णि के अनुसार — दीर्घतपस्वी हो, क्षुधातुरता हो, शरीर में रोगादि वेदना हो, अथवा पाहुने साधुओं का आगमन हुआ हो, इत्यादि कारण हों । हारिभद्रयवृत्ति में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है— पुष्ट आलम्बन रूप कारण (क्षुधावेदनादि उत्पन्न) होने पर मुनि पुनः भक्तपान - गवेषणा करे, अन्यथा मुनियों के लिए एक बार ही भोजन करने का विधान है। जड़ तेणं न संथरे — जितना भोजन किया है। उतने से यदि रह न सके, निर्वाह न हो सके ।' यथाकालचर्या करने का विधान
२१७. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे ।
अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ २१८. अकाले चरसि भिक्खो ? कालं न पडिलेहसि ।
अप्पाणं च किलामेसि, सांवेसं च गरहसि ॥ ५ ॥ २१९. सइ काले चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारियं ।
अलाभोत्ति न सोएज्जा, तवो त्ति अहियासए ॥ ६ ॥ [२१७] भिक्षु (भिक्षा) काल में (जिस गांव में जो भिक्षा का समय हो, उसी समय में भिक्षा के लिए उपाश्रय से) निकले और समय पर ( स्वाध्याय आदि के समय) ही वापस लौट आए, अकाल को वर्ज (छोड़) कर जो कार्य जिस समय उचित हो, उसे उसी समय करे ॥४॥
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(क) सेज्जा —— उवस्सतादि मट्ठकोट्ठादि ।
(ख) शय्यायां वस्तौ । नैषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ ।
— जिनदास चूर्णि, पृ. १९४ — हारि. वृत्ति, पत्र १८२ -अ. चू., पृ. १२६ — जिनदासचूर्णि, पृ. १९४
(ग) णिसीहिया - सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सेव निसीहिया ।
(घ) गोयरग्गसमावण्णो बालवुडखवगादि मट्ठकोट्ठगादिषु समुद्दिट्ठो होज्जा ।
(क) अयावयट्ठे-ण जावदट्टं यावदभिप्रायं ।
(ख) न यावदर्थं अपरिसमाप्तमिति ।
(क) अगस्त्यचूर्णि, पृ. १२६
(ख) हारि. वृत्ति, पत्र १८२
यदि तेन भुक्तेन, न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति । —हारि वृत्ति, पत्र १८२
अ.चू., पृ. १२६ — हारि. वृत्ति, पत्र १८२