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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणां १९५ सेज्जा, निसीहियाए, गोयरे पदों के विशेषार्थ — ये तीनों पारिभाषिक शब्द हैं। इनके प्रचलित अर्थों से भिन्न अर्थ यहां अभिप्रेत है। सेज्जा : शय्या — उपाश्रय, मठ, कोष्ठ और वसति । निसीहिया : नैषीधिकी —— स्वाध्यायभूमि । दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित 'नसिया' शब्द इसी का अपभ्रंश है। प्राचीनकाल में स्वाध्यायभूमि उपाश्रय से दूर एकान्त में, कोलाहल से रहित स्थान में या वृक्षमूल में चुनी जाती थी। समावन्नो य गोयरे —— गोचर अर्थात् गोचरी - भिक्षाचरी के लिए गया हुआ ।' अयावयट्ठा : अयावदर्थ अपर्याप्त—– जितना खाद्यपदार्थ चाहिए, उतना नहीं अर्थात् — पेटभर नहीं, क्षुधानिवारण में कम । कारणमुप्पन्न : दो आशय – यहां 'कारण' शब्द से दो आशय प्रतीत होते हैं— (१) उत्तराध्ययनसूत्रोक्त आहार करने के ६ कारणों में से कोई कारण उत्पन्न हो, अथवा (२) अगस्त्यचूर्णि के अनुसार — दीर्घतपस्वी हो, क्षुधातुरता हो, शरीर में रोगादि वेदना हो, अथवा पाहुने साधुओं का आगमन हुआ हो, इत्यादि कारण हों । हारिभद्रयवृत्ति में इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है— पुष्ट आलम्बन रूप कारण (क्षुधावेदनादि उत्पन्न) होने पर मुनि पुनः भक्तपान - गवेषणा करे, अन्यथा मुनियों के लिए एक बार ही भोजन करने का विधान है। जड़ तेणं न संथरे — जितना भोजन किया है। उतने से यदि रह न सके, निर्वाह न हो सके ।' यथाकालचर्या करने का विधान २१७. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे ॥ ४ ॥ २१८. अकाले चरसि भिक्खो ? कालं न पडिलेहसि । अप्पाणं च किलामेसि, सांवेसं च गरहसि ॥ ५ ॥ २१९. सइ काले चरे भिक्खू, कुज्जा पुरिसकारियं । अलाभोत्ति न सोएज्जा, तवो त्ति अहियासए ॥ ६ ॥ [२१७] भिक्षु (भिक्षा) काल में (जिस गांव में जो भिक्षा का समय हो, उसी समय में भिक्षा के लिए उपाश्रय से) निकले और समय पर ( स्वाध्याय आदि के समय) ही वापस लौट आए, अकाल को वर्ज (छोड़) कर जो कार्य जिस समय उचित हो, उसे उसी समय करे ॥४॥ २. ३. ४. ५. (क) सेज्जा —— उवस्सतादि मट्ठकोट्ठादि । (ख) शय्यायां वस्तौ । नैषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ । — जिनदास चूर्णि, पृ. १९४ — हारि. वृत्ति, पत्र १८२ -अ. चू., पृ. १२६ — जिनदासचूर्णि, पृ. १९४ (ग) णिसीहिया - सज्झायथाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सेव निसीहिया । (घ) गोयरग्गसमावण्णो बालवुडखवगादि मट्ठकोट्ठगादिषु समुद्दिट्ठो होज्जा । (क) अयावयट्ठे-ण जावदट्टं यावदभिप्रायं । (ख) न यावदर्थं अपरिसमाप्तमिति । (क) अगस्त्यचूर्णि, पृ. १२६ (ख) हारि. वृत्ति, पत्र १८२ यदि तेन भुक्तेन, न संस्तरेत् न यापयितुं समर्थः क्षपको विषमवेलापत्तनस्थो ग्लानो वेति । —हारि वृत्ति, पत्र १८२ अ.चू., पृ. १२६ — हारि. वृत्ति, पत्र १८२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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