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पंचमं अज्झयणं : पंचम अध्ययन
पिंडेसणा : पिण्डैषणा बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक
पात्र में गृहीत समग्र भोजन-सेवन का निर्देश
२१४. पडिग्गहं संलिहिताणं लेवमायाए संजए ।
दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए ॥१॥ [२१४] सम्यक् यत्नवान् साधु लेपमात्र-पर्यन्त (लेप लगा रहे तब तक) पात्र को अंगुलि से पोंछ (या चाट) कर सुगन्धयुक्त (पदार्थ) हो या दुर्गन्धयुक्त, सब खा ले, (किञ्चिन्मात्र भी शेष) न छोड़े ॥१॥
विवेचन भोजन करने के बाद की विधि- प्रस्तुत गाथा में भोजन करने के बाद पात्र को अच्छी तरह पौंछ कर साफ करने का विधान किया गया है। इसमें 'सुगंधं वा दुगंधं वा' ये दो पद मनोज्ञ-अमनोज्ञ के उपलक्षण हैं। दोनों का आशय है—प्रशस्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्त और अप्रशस्त वर्णादियुक्त। इसका तात्पर्य यह है कि मुनि ऐसा न करे कि पात्र में लिया हुआ सरस आहार तो खा ले और नीरस आहार फेंक दे।
जैसा भी, जो भी पात्र में लिया है, उसे समभावपूर्वक खा ले। ग्रासैषणा से सम्बन्धित यह गाथा स्वच्छता, अपरिग्रहवृत्ति और अस्वादवृत्ति की प्रेरणा देने वाली है। पर्याप्त आहार न मिलने पर पुनः आहार-गवेषणा-विधि
२१५. सेज्जा निसीहयाए, समावन्नो य गोयरे ।
अयावयट्ठा भोच्चाणं जइ तेण न संथरे ॥२॥ २१६. तओ कारणमुप्पन्ने भत्त-पाणं गवेसए ।
विहिणा पुव्ववुत्तेण इमेणं उत्तरेण य ॥३॥ [२१५-२१६] उपाश्रय (शय्या) में या स्वाध्यायभूमि (नैषेधिकी) में बैठा हुआ, अथवा गोचरी (भिक्षा) के लिए गया हुआ मुनि अपर्याप्त खाद्य-पदार्थ खाकर (खा लेने पर) यदि उस (आहार) से निर्वाह न हो सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और इस उत्तर (वक्ष्यमाण) विधि से भक्त-पान की गवेषणा करे ॥ २-३॥
विवेचन कारणविशेष से पुनः भक्तपान-गवेषणा–प्रस्तुत दो सूत्रगाथाओं (२१५-२१६) में पर्याप्त आहार न मिलने और क्षुधानिवारण न होने पर पुनः विधिपूर्वक भिक्षाचर्या करने का निर्देश किया गया है।
१.
(क) जिनदासचूर्णि, पृ. १९४ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ६२