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दशवैकालिकसूत्र अस्थिर शिलादि-संक्रमण करके गमननिषेध और कारण
*१७८. होज कटुं सिलं वा वि इट्टालं वा वि एगया ।
ठवियं संकमट्ठाए तं च होज चलाचलं ॥ ९६॥ १७९.. न तेण भिक्खू गच्छेजा, दिट्ठो तत्थ असंजमो ।
गंभीरं झुसिरं चेव सव्विंदियसमाहिए ॥ ९७॥ [१७८-१७९] (यदि) कभी (वर्षा आदि के समय में) काठ (लक्कड़), शिला या ईंट संक्रमण (मार्ग पार करने) के लिए रखे (स्थापित किये) हुए हों और वे चलाचल (अस्थिर) हों, तो सर्वेन्द्रिय समाहित भिक्षु उन पर से होकर न जाए। इसी प्रकार प्रकाशरहित (अंधेरे) और पोले (अन्त:साररहित) (मार्ग) से भी न जाए। भगवान् ने उसमें (ऐसे मार्ग से गमन करने में) असंयम देखा है ॥ ९६-९७॥
विवेचन मार्गविवेक वर्षाऋतु में अतिवृष्टि के कारण कई बार रास्ते में गड्ढे पड़ जाते हैं, अथवा छोटा तथा सूखा नाला पानी से भर जाता है, तब ग्रामीण लोग उसे पार करने के लिए लकड़ी का बड़ा लट्ठा, शिला, पत्थर या ईंट रख देते हैं। ये प्रायः अस्थिर होते हैं। उनके नीचे कई जीव आश्रय ले लेते हैं, अथवा वे सचित्त जल पर रखे होते हैं। उन पर पैर रख कर जाने से उन जीवों की हिंसा होने की सम्भावना है, अथवा पैर फिसल जाने से गड्ढे में गिर पड़ने की सम्भावना है। इस प्रकार परविराधना और आत्मविराधना, दोनों असंयम के हेतु हैं। इस प्रकार अंधेरे या पोले मार्ग से जाने में भी दोनों प्रकार के असंयम होने की सम्भावना है। इसलिए इस प्रकार संक्रमण कर गमन करने का निषेध किया गया है।" 'मालापहृत' दोषयुक्त आहार अग्राह्य
१८०. निस्सेणिं फलगं पीढं उस्सवित्ताणमारुहे ।
मंचं कीलं च पासायं, समणट्ठाए व दावए ॥ ९८॥ १८१. दुरूहमाणी पवडेजा, हत्थं पायं व लूसए ।
पुढविजीवे विहिंसेजा, जे य तन्निसिया जगा ॥ ९९॥ १८२. एयारिसे महादोसे जाणिऊण महेसिणो ।
तम्हा मालोहडं भिक्खं न पडिगेण्हंति संजया ॥१०॥
* पाठान्तर-सूत्रगाथा १७८ से लेकर १८२ तक पांच सूत्रगाथाओं के स्थान में अगस्त्य चूर्णि में ये तीन गाथाएं मिलती हैं
गंभीरं झसिरं चेव सव्विंदियसमाहिते । णिस्सेणी फलगं पीठं उस्सवेत्ताण आरुहे ॥१॥ मंचं खीलं च पासायं समणटाए दायगे । दुरूहमाणे पवडेजा हत्थं पायं विल्सए ॥ २॥ पुढविक्कायं विहिंसेज्जा, जे वा तण्णिस्सिया जगा ।
तम्हा मालोहडं भिक्खं न पडिगाहेज संजते ॥३॥ ७४. दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ४५८