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दशवैकालिकसूत्र
[१६४-१६५] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उस (अग्नि) को उज्ज्वलित (सुलगा) कर दे, तो वह भक्त-पान संयमी के लिए अकल्पनीय होता है । अतः मुनि देती हुई (उस महिला को) निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार के आहार को ग्रहण नहीं करता ॥ ८२-८३ ॥
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[१६६-१६७] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो तथा उसे ( अग्नि को ) प्रज्ज्वलित (बार-बार ईंधन डाल कर अधिक आग भड़का कर (साधु को) देने लगे तो वह भक्त - पान संयमीजनों के लिए अकल्पनीय होता है। इसलिए साधु देती हुई उस महिला को निषेध कर दे कि ऐसा आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है । ८४-८५ ॥
[१६८-१६९] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उस (अग्नि) को बुझा कर (आहार) देने लगे, तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। इसलिए भिक्षु देती हुई उस महिला को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं नहीं ले सकता ॥ ८६-८७ ॥
[१७०-१७१] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसमें से (बर्तन में से) आहार बाहर निकाल कर देने लगे, तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है । अतः देती हुई उस महिला को साधु निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता ॥ ८८-८९ ॥
[१७२-१७३] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसमें (बर्तन में) पानी का छींटा देकर (साधु को) देना चाहे, तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्पनीय (अग्राह्य) होता है। इसलिए देती हुई उस महिला को (साधु) निषेध कर दे कि मैं इस प्रकार का आहार ग्रहण नहीं
करता ॥ ९०-९१ ॥
[१७४- १७५] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसको (पात्र) को एक ओर टेढ़ा करके (साधु को) देने लगे, तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है । अतः देती हुई उस महिला को साधु स्पष्ट निषेध कर दे कि मैं ऐसे आहार को ग्रहण नहीं करता ॥ ९२-९३ ॥
[१७६-१७७] यदि अशन, पानक तथा खाद्य और स्वाद्य, अग्नि पर रखा हुआ हो और उसे ( बर्तन को ) उतार कर देने लगे तो, वह भक्त - पान संयमी साधु-साध्वियों के लिए अकल्पनीय होता है। इसलिए मुनि, देती हुई उस नारी को निषेध कर दे कि मेरे लिए इस प्रकार का आहार ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ९४-९५॥
विवेचन—– सचित्त वनस्पति-जल- अग्नि आदि से संस्पृष्ट आहार - ग्रहण - निषेध - प्रस्तुत २४ सूत्र - गाथाओं (१५४ से १७७ तक) में प्रारम्भ की ४ गाथाएं वनस्पति और सचित्त जल से संस्पृष्ट आहारग्रहण - निषेधक हैं, तत्पश्चात् २० गाथाएं अग्निकाय से संस्पृष्ट आहारग्रहण का निषेध प्रतिपादित करने वाली हैं।
पुष्पादि से उन्मिश्र : व्याख्या - उन्मिश्र, एषणा का सप्तम दोष है। साधु के लिए देय अचित्त आहार में न देने योग्य सचित्त वनस्पति आदि का मिश्रण करके या सहज ही मिश्रित हो वैया दिया जाने वाला आहार उन्मिश्र दोषयुक्त कहलाता है । जैसे— पानक में गुलाब और जाई आदि के फूल मिले हुए हों, धानी के साथ सचित्त गेहूं आदि के बीज मिले हों अथवा पानक में दाड़िम आदि के बीज मिले हों। खाद्य - स्वाद्य भी पुष्प आदि वनस्पति