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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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बहुउज्झितधर्मा फल आदि के ग्रहण का निषेध
१८६. बहु-अट्ठियं पोग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं ।
अच्छियं+ तेंदुयं बिल्लं उच्छुखंडं च सिंबलिं ॥ १०४॥ १८७. अप्पे सिया भोयणजाए बहु उज्झियधम्मए ।*
बेतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १०५॥ ___ [१८६-१८७] बहुत अस्थियों (बीजों या गुठलियों) वाला पुद्गल (फल), बहुत-से कांटों वाला अनिमिष (अनन्नास), आस्थिक (सेहजन की फली), तेन्दु, बेल, (बिल्बफल), गन्ने के टुकड़े (गंडेरियां) और सेमली की फली (अथवा फली), जिनमें खाद्य (खाने का) अंश कम हो और त्याज्य अंश बहुत अधिक हो, (अर्थात् फेंकना अधिक पड़े) (-उन सब फल आदि को) देती हुई स्त्री को मुनि स्पष्ट निषेध कर दे कि इस प्रकार का (फल आदि आहार) मेरे लिए ग्रहण करना योग्य नहीं है ॥१०४-१०५॥
विवेचन खाद्यांश कम, त्याज्यांश अधिक वाले फलादि अग्राह्य प्रस्तुत दो सूत्रगाथाओं में बहुत कांटों वाले, बहुत-से बीजों या गुठलियों वाले तथा अन्य फलियों आदि अग्राह्य पदार्थों का उल्लेख किया गया है, जिनमें खाने का भाग कम और फेंकने का भाग अधिक हो।
बहुअट्ठियं आदि पदों का अर्थ—जैन साधु-साध्वियों के हिंसा का तीन करण तीन योग से त्याग होता है। वे ऐसी वस्तुओं का उपयोग कतई नहीं करते हैं, जो त्रस जीवों के वध से निष्पन्न हो। त्रस जीवों के वध से निष्पन्न वस्तुओं का उपयोग तो दूर रहा, वे ऐसी वस्तु का उपयोग भी नहीं करते जिसमें पहले, तत्काल, पीछे या लेते समय किसी भी एकेन्द्रिय जीव की विराधना हो। इसलिए यहां जो अस्थि का अर्थ हड्डी करके तथा कांटे का अर्थ मछली का कांटा करके इस पाठ का मांस-मत्स्यपरक अर्थ करते हैं, वह कथमपि संगत नहीं है। निघण्टुकोष आदि के अनुसार इन शब्दों का अर्थ वनस्पतिपरक होता है और यही प्रकरणसंगत है। यथा—बहु-अट्ठियं पोग्गलं जिनमें बहुत-से बीज या गुठलियां हों, ऐसे फलों का पुद्गल (भीतर का गूदा) । निघण्टु में 'सीताफल' का नाम 'बहुबीजक' भी है। कोष में भी फल के अर्थ में अस्थि' शब्द का प्रयोग हुआ है। अणिमिसंवा बहुकंटयं बहुत कांटों वाला अन्ननास फल, अथवा अनिमिष का अर्थ अनन्नास और बहुकंटयं का अर्थ बहुत कांटों वाला कटहल। कटहल के छिलके में सर्वत्र कांटे होते हैं। दोनों बहुकण्टक हैं। अनन्नास में कांटे कम और तीखे होते हैं, जबकि कटहल के छिलके में बहुत कांटे होते हैं।
अच्छियं : अत्थियं : दो रूप : दो अर्थ (१) अ. कं–अक्षिक एक प्रकार का रंजक फल होता है। अक्षिकी एक बेल भी होती है, जिसका फल कफ-पित्तनाशक, खट्टा एवं वातवर्द्धक होता है। (२) अस्थिक
७७. (ङ) सुश्रुत २६७ (च) 'प्रसह्य'–अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम् ।
'पसढमिति पच्चक्खातं तदिवसं विक्कतं व गतं ।'
'तं पसढं नाम जं बहुदेवसियं दिणे-दिणे विक्कायते तं ।' पाठान्तर- पुग्गलं । + अत्थियं । * बहु-उज्झण-धम्मिए ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १७६
—अग. चूर्णि, पृ. ११८ -जिनदास चूर्णि, पृ. १८४