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दशवकालिकसूत्र आदि कहलाता है। ऐसे वनीपकों के लिए तैयार किया गया भोजन भोजन वनीपकार्थ-प्रकृत है।
श्रमणार्थ-प्रकृत—जो आहार सब प्रकार के श्रमणों को दान देने के लिए तैयार किया गया हो, वह श्रमणार्थप्रकृत है। पांच प्रकार के श्रमण बताए गए हैं—(१) निर्ग्रन्थ, (२) सौगत, (३) तापस (जटाधारी), (४) गैरिक
और (५) आजीवक (गोशालकमतानुयायी)। साधारणतया इन सबको देने के निमित्त से बना हुआ आहार लेने पर निर्ग्रन्थ साधु-साध्वियों को औद्देशिक दोष लगता है। अन्यों के अन्तराय का भी यह कारण होता है।६५
अशन-पानक-खादिम-स्वादिम : विशेषार्थ अशन का अर्थ है—ओदन आदि अन्न, पानक का अर्थ द्राक्षा आदि से बने हुए पेयपदार्थ है। शास्त्र में साधारण जल को प्रायः पानीय, सुरा आदि को पान और द्राक्षा, खजूर, फालसे आदि से निष्पन्न जल को पानक कहा गया है।६६ औद्देशिकादि दोषयुक्त आहारग्रहणनिषेध
१५२. उद्देसियं कीयगडं पूईकम्मं च आहडं ।
___अझोयर-पामिच्चं मीसजायं च वजए ॥७॥ [१५२] (साधु या साध्वी) औद्देशिक, क्रीतकृत, पूतिकर्म, आहृत, अध्यवतर (या अध्यवपूरक) प्रामित्य और मिश्रजात, (इन दोषों से युक्त) आहार न ले ॥ ७० ॥
विवेचन औदेशिक आदि पदों की व्याख्या औदेशिक किसी एक या अनेक विशिष्ट साधुओं के निमित्त से गृहस्थ के द्वारा बनाया हुआ आहार। यह उद्गम का दूसरा दोष है। क्रीतकृत–साधु के लिए खरीद कर निष्पन्न किया हुआ आहार क्रीतकृत है। यह आठवां उद्गम दोष है। पूतिकर्म विशुद्ध आहार में आधाकर्म आहार आदि दोषों से दूषित आहार के अंश को मिला कर निष्पन्न किया गया आहार। ऐसा आहार लेने से मुनियों के चारित्र में अपवित्रता (अशुद्धि) आती है, इसलिए इसे भावपूति कहते हैं। पूतिकर्म तीसरा उद्गम-दोष है। आहृत–साधु या साध्वी को देने के लिए अपने घर गांव आदि से उपाश्रय आदि स्थान में ला कर या मंगवा कर दिया जाने वाला आहार। इसे अभ्याहत दोष भी कहते हैं। यह उत्पादना के दोषों में से एक है।अझोयर : अध्यवतर या अध्यवपूरक अपने लिए आहार बनाते समय साधुओं का गांव में पदार्पण या निवास जान कर और अधिक पकाया हुआ आहार अध्यवतर या अध्यवपूरक है। यह उद्गम का सोलहवां दोष है। प्रामित्य साधु को देने के लिए कोई खाद्य पदार्थ दूसरों से उधार लेकर दिया जाने वाला आहार । यह उद्गम का नौवां दोष है। मिश्रजात
६५. (क) श्व-वनीपको यथा— अविनाम होज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो ।
छिच्छिकारहयाणं न हु सुलभो सुणताणं ॥ केलासभवणा एए, गुज्झगा आगया महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥
–ठा. ५/२०० वृत्ति (ख) श्रमणाः लोकप्रसिद्ध्यनुरोधतो निर्ग्रन्थ-शाक्य-तापस-गैरिकाऽऽजीवकभेदेन पंचधा ।
__-दशवै. आचारमणिमंजूषा भाग १, पृ. ४४४ ६६. दशवै. (आचारमणिमंजूषा) भाग १, पृ. ४३७