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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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[१४४-१४५] यदि मुनि यह जान जाए या सुन ले कि यह अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य दानार्थ तैयार किया गया है, तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। ( अतः मुनि ऐसा आहार ) देती हुई महिला को निषेध कर दे कि ऐसा आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है ॥ ६२-६३ ॥
[१४६-१४७] यदि साधु या साध्वी यह जान ले या सुन ले कि यह अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य पुण्यार्थ तैयार किया गया है, तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्प्य होता है। (इसलिए भिक्षु ऐसा आहार ) देती हुई उस स्त्री को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है ॥ ६४-६५ ॥
[१४८-१४९] यदि भिक्षु या भिक्षुणी यह जान ले या सुन ले कि यह अशन, पानक, खाद्य या स्वाद्य वनीपकों (भिखमंगों) के लिए तैयार किया गया है, तो वह भक्त - पान साधुओं के लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए भिक्षा देती हुई उस महिला को निषेध कर दे कि ऐसा आहार मेरे लिए अग्राह्य है ॥ ६६-६७॥
[१५०-१५१] यदि श्रमण या श्रमणी यह जान ले कि यह अशन, पानक, खाद्य या स्वाद्य श्रमणों के निमित्त से बनाया गया है तो वह भक्त - पान संयमियों के लिए अकल्पनीय होता है। (इसलिए) भिक्षु आहार देती हुई उस स्त्री को निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है ॥ ६८-६९ ॥
विवेचन—–दानार्थ- प्रकृत आदि शब्दों का विशेषार्थ - प्रस्तुत सूत्र गाथाओं ( १४४ से १५१) में दानार्थ, पुण्यार्थ, वनीपकार्थ और श्रमणार्थ तैयार किए गए आहार को ग्रहण करने का निषेध किया गया है।
दानार्थ - प्रकृत- आहार - विदेश - प्रवास से लौट कर आने पर या किसी पर्व - विशेष या पुत्रजन्म आदि अवसरों पर बधाई देने आने वालों को प्रसादभाव से देने के लिए आहार तैयार करवाना दानार्थ - प्रकृत आहार कहलाता है । अथवा चिरकाल से विदेश प्रवास से आकर साधुवाद पाने के लिए किसी श्रेष्ठी द्वारा समस्त पाखण्डियों को दान देने के लिए तैयार कराया गया भोजन ही दानार्थ प्रकृत है । १४
पुण्यार्थ- प्रकृत - पर्वतिथि के दिन धन्यवाद या प्रशंसा पाने की इच्छा रखे बिना जो आहार केवल पुण्यलाभ की दृष्टि से बनाया जाता है, दाता जिसका स्वयं उपभोग नहीं करता, वह पुण्यार्थ- प्रकृत है।
वनीपकार्थ-प्रकृत—– जो दूसरों को अपनी दीनता - दरिद्रता दिखा कर, अनुकूल बोलकर दाता की खुशामद या प्रशंसा करके पाता है, वह वनीपक कहलाता है, वह दीनतापूर्वक गिड़गिड़ाकर भीख मांगने वाला याचक है। अथवा जो अपने-अपने विषय की अति प्रशंसा करके माहात्म्य बतला कर आशीर्वाद देकर बदले में दान पाता है, वह वनीपक कहलाता है । इस दृष्टि से अतिथि-वनीपक, कृपण-वनीपक, ब्राह्मण-वनीपक, श्व-वनीपक और श्रमण-वनीपक ये ५ प्रकार के वनीपक स्थानांगसूत्र में बताए हैं। जैसे—– अतिथिभक्त के सामने अतिथिदान की, ब्राह्मणभक्त के सामने ब्राह्मणदान की प्रशंसा करके जो दान पाता है, वह क्रमशः अतिथि-वनीपक, ब्राह्मण-वनीपक
६४.
(क) दाणट्टप्पगडं कोति ईसरो पवासागतो साधुसद्देण सव्वस्स आगतस्स सक्कारणनिमित्तं दाणं देति ।
अ. चू., पृ. ११३ — हारि. वृत्ति, पत्र १७३
(ख) पुण्यार्थं प्रकृतं नाम साधुवादानंगीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । (ग) परेषामात्मदुःस्थत्व दर्शनेनाकुलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीता तां पिवति, पातीति वेति वनीप:, स एव वनीपको याचकः । —स्था., ५/२०० वृत्ति