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दशवैकालिकसूत्र
स्त्री का निर्देश किया गया है। उपलक्षण से 'देता हुआ', इस प्रकार पुरुष का निर्देश भी समझ लेना चाहिए।" ..
परिसाडिज भोयणं- आहार लाते समय दाता भूमि पर उसे गिराता या बिखेरता हुआ साधु को दे तो वह अग्राह्य है, यह 'एषणा' का दसवां 'छर्दित' नामक दोष है। यह इसलिए दोष माना गया है कि यदि गर्म आहार दाता के शरीर पर पड़ जाए तो वह जल सकता है तथा आहार की बूंदे नीचे गिरने पर चींटी आदि जीवों की विराधना संभव है।
संमद्दमाणी...असंजमकरि नच्चा : अभिप्राय—प्राणी या वनस्पति आदि को कुचलती या रौंदती हुई दात्री को शास्त्रकार असंयमकारी मानते हैं। असंयम का अर्थ यहां 'संयम का सर्वथा अभाव' नहीं, किन्तु 'जीववध असंयम' समझना चाहिए और साधु के निमित्त से इस प्रकार का असंयम करके आहार लाकर देने वालों से वह आहार नहीं लेना चाहिए। ६ |
पडिआइक्खे- (१) त्याग (प्रत्याख्यान) कर दे, (२) निषेध कर दे, अथवा (३) कह दे।"
तारिसं : तात्पर्य यह विशेषण (तादृशं) भक्त-पान का है। अर्थात् ऐसा आहार, जो कि अमुक भिक्षादोष से युक्त हो।
संहृत, निक्षिप्त आदि दोषों का स्पष्टीकरण संहत-दोष श्रमण के लिए आहार एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालना और उसमें जो अनुपयोगी अंश हो उसे बाहर फेंकना संहरण है। संहरण करके आहार दिया जाए तो वह संहत नामक दोष युक्त है। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है—(१) अचित्त (प्रासुक) बर्तन से अचित्त (प्रासुक) बर्तन में आहार निकाले, (२) प्रासुक बर्तन से अप्रासुक बर्तन में आहार निकाले, (३) अप्रासुक बर्तन से प्रासुक बर्तन में आहार निकाले और (४) अप्रासुक बर्तन में से अप्रासुक बर्तन में आहार निकाले। इसी प्रकार सचित्त और अचित्त के मिश्रण को भी संहरण कहते हैं। इसकी भी चौभंगी होती है—(१) सचित्त में सचित्त मिलाना, (२) सचित्त में अचित्त मिलाना, (३) अचित्त में सचित्त मिलाना और (४) अचित्त में अचित्त मिला देना। पिण्डनियुक्ति में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है। अचित्त बर्तन में से भी अचित्त बर्तन में निकालने में दोष इसलिए है कि कदाचित् बड़े वजनदार बर्तन में से छोटे बर्तन में निकालने, उस बर्तन को इधर-उधर करने में पैर दब जाए, गर्म वस्तु पैर पर या अंग पर उछल कर पड़ जाय, अथवा छोटे बर्तन में से भारीभरकम बर्तन में निकालने में उसे उठाकर साधु को देने के लिए लाने में दाता को अत्यन्त कष्ट होगा। ४४. 'ददतीम्....स्त्रयेव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणम् ।'
-हारि. वृत्ति, पत्र १६९ ४५. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १७४ (ख) उसिणस्स छड्डणे देंतओ व डझेज कायदाहो वा । सीय पडणंति काया पडिए महुबिंदु-आहरणं ॥
—पिण्डनियुक्ति ६२८ ४६. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १७५
(ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २२५ ४७. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १८४
(ख) दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, पृ. ४११ ४८. तारिसं भत्तपाणं तु परिवज्जए ।
—अग. चूर्णि, पृ. १०७ ४९. साहटु नाम अन्नंमि भायणे साहरिउं (छोढूण) देंतितं....जहापिंडनिजुत्तीए। -जिन. चूर्णि, पृ. १७८