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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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___ रहस्सारक्खियाणं : दो रूप : दो अर्थ- (१) रहस्यं आरक्षकाणां नगर के रक्षक कोतवाल या दण्डनायक आदि के गुप्त मंत्रणा करने के स्थान को। (२) रहस्यारक्षिकानां अगस्त्य चूर्णि के अनुसार राजा के अन्तःपुर के अमात्य आदि। यहां रहस्य शब्द को रन्नो, गिहिवईणं, 'आरक्खियाणं' इन तीनों पदों से सम्बन्धित मान कर अर्थ किया है राजा के, गृहपतियों के और आरक्षिकों के मंत्रणास्थान को या परामर्श करने के एकान्तस्थान को संक्लेशकर (असमाधिकारक) मान कर दूर से परित्याग करे। गुह्यस्थानों या मंत्रणास्थानों में जाने से साधु के प्रति स्त्री-अपहरण या मंत्रणाभेद की शंका होने से उसे व्यर्थ ही पीड़ित या निगृहीत किया जा सकता है।
भिक्षाचर्या के लिए साधु-साध्वी की मुद्रा एवं चित्तवृत्ति कैसी हो?— यह प्रस्तुत दो गाथा सूत्रों (९३९४) में बताया गया है। इसके लिए शास्त्रकार ने ९ मंत्र बताए हैं। इनकी व्याख्या इस प्रकार है—(१) अनुन्नतउन्नत के दो प्रकार—द्रव्योन्नत-ऊंचा मुंह करके चलने वाला, भावोन्नत—जाति आदि ८ मदों से मत्त—अक्कड़। भिक्षाचरी के समय दोनों दृष्टियों से साधु-साध्वी को अनुन्नत (उन्नत न) होना आवश्यक है। द्रव्योन्नत ईर्यासमिति शोधन नहीं कर सकता, भावोन्नत मदमत्त होने से नम्र नहीं हो पाता। (२) नावनत अवनत के दो प्रकार—द्रव्यअवनत — झुककर कर चलने वाला, भाव-अवनत दैन्य, दुर्मन एवं हीनभावना से ग्रस्त। द्रव्य-अवनत हास्यपात्र बनता है, बकभक्त कहलाता है, क्योंकि वह नीचे झुकर कर फूंक-फूंक कर चलने का ढोंग करता है। भाव-अवनत क्षुद्र एवं दैन्यभावना से भरा होता है। साधुवर्ग इन दोनों से दूर रहे। (३) अप्रहृष्ट-हंसता हुआ या अतिहर्षित अथवा हंसी-मजाक करता हुआ न चले। (४) अनाकुल-मन-वचन-काया की आकुलता से रहित या क्रोधादि से रहित। गोचरी के लिए चलते समय मन में नाना संकल्प-विकल्प करना या मन में सूत्र-अर्थ का चिन्तन करना मन की व्याकुलता है। विषयभोग की बात करना या शास्त्र के किसी पाठ का अर्थ पूछना या उसका स्मरण करना, वाणी की आकुलता है तथा अंगों की चपलता शरीर की आकुलता है। (५) विषयानुरूप इन्द्रियदमन-इन्द्रियों का अपने-अपने विषयानुसार दमन करना, अर्थात् —मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दादि विषयों पर राग द्वेष न करना। (६) अद्रुतगमन दवदव' का अर्थ-दौड़ते हुए चलना। इससे प्रवचनलाघव और संयमविराधना दोनों हैं। संभ्रमचित्तचेष्टा है, द्रवद्रव कायिक चेष्टा है, यही दोनों में अन्तर है। अतः द्रुतगमन साधुवर्ग के लिए निषिद्ध है। (७) अभाषणपूर्वक गमन भिक्षाटन करते समय भाषण-संभाषण न करना। अन्यथा भाषासमिति, ईर्यासमिति एवं वचनगुप्ति का पालन दुष्कर होगा। (८) हास्यरहितगमन स्पष्ट है। हंसी-मखौल करते हुए भिक्षाटन के समय
२४. (क) अपरिवज्जणे दोसो—साणो खाएज्जा, गावी (नवप्पसूआ) मारेज्जा, गोणी तरेजा, एवं हयगयाणवि मारजादिदोसा
भवंति। बालरूवाणि पुण पाएसु पडियाणि भायणं भिंदिज्जा, कट्टाकछिवि करेजा। धणुविप्पमुक्केण व कंडेण
आहणिज्जा। तारिसं अणहियासंतो भणिज्जा, एवमादिदोसा। (ख) श्व-सूतगोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना डिम्भस्थाने वन्दनाद्यागमन-पतन-भण्डन-प्रलुण्ठनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनोभयविराधना।
—हारि. टीका, पत्र १६६ (ग) कलहे अणहियासो किं चि हणेज भणिज्ज वा, एवमादिदोसा ।। - -अ.चू. १०२ २५. रण्णो रहस्सठाणाणि गिहवईणं रहस्सठाणाणि, आरक्खियाण रहस्सठाणाणि संकणादिदोसा भवंति, चकारेण अण्णोणि
पुरोहियादि गहिया, रहस्सठाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्सियं मंतेति। -जिनदास चूर्णि, पृ. १७४