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पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा
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मलमूत्र की बाधा लेकर न जाए, न बाधा रोके- गोचरी के लिए जाते समय पहले ही मल-मूत्र की हाजत से साधु निवृत्त हो जाए, फिर भी अकस्मात् पुनः बाधा हो जाए तो मुनि विधिपूर्वक प्रासुक स्थान देखकर, गृहस्थ से अनुमति ले कर वहां मल-मूत्रविसर्जन कर ले, किन्तु बाधा न रोके। मूत्रनिरोध से मुख्यतया नेत्रज्योति क्षीण हो जाती है, तथा मलनिरोध से तेज एवं जीवनशक्ति का नाश होने की सम्भावना है। अतः मल-मूत्रबाधा नहीं रोकनी चाहिए। आचारांग में मल-मूत्र की आकस्मिक बाधा के निवारणार्थ स्पष्ट विधि बतलाई गई है।३३
प्रासुक स्थान– यह जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है—अचित्त या जीवरहित। किन्तु यहां प्रसंगवश अर्थ होगा जो भूमि दीमक, कीट आदि जीवों से युक्त न हो, तत्काल अग्निदग्ध न हो, सचित्त जल, वनस्पति आदि से युक्त न हो, इत्यादि प्रकार से निर्दोष या विशुद्ध हो।'३४
अंधकारपूर्ण निम्न द्वार वाले कोठे में भिक्षार्थ प्रवेश निषिद्ध क्यों?— इसका आगमसम्मत कारण हिंसा है, क्योंकि वहां जीवजन्तु न दीखने से ईर्यासमिति का शोधन नहीं होता, अंधेरे में दाता के या स्वयं के गिर पड़ने की आशंका है। इसीलिए इसे दायकदोष भी बताया है।५
तत्काल लीपे या गीले कोठे में प्रवेश निषिद्ध– इसके निषेध के दो कारण हैं तत्काल लीपे एवं गीले आंगन पर चलने से जलकाय एवं सम्पातिम जीवों की विराधना होती है। हरिभद्रसूरि के अनुसार तत्काल लीपे और गीले कोष्ठक में प्रवेश करने से आत्मविराधना और संयमविराधना होती है।६
एलकादि का उल्लंघन या अपसारण निषिद्ध क्यों ?- चूर्णि के मतानुसार—एलक आदि को हटाने या लांघ कर जाने से वह सींग से मुनि को मार सकता, कुत्ता काट सकता, पाडा मार सकता है। बछड़ा भयभीत होकर बन्धन तोड़ सकता है, मुनि के पात्र फोड़ सकता है, बालक को हटाने से उसे पीड़ा हो सकती है, उसके अभिभावकों को साधु के प्रति अप्रीति उत्पन्न हो सकती है। नहा-धोकर कौतुक मंगल किये हुए बालक को हटाने या लांघ कर जाने से बालक को प्रदोष (अमंगल) से मुक्त कर देने का लांछन लगाया जा सकता है। अतः एलक
३२. वरागा, एवमादि दोसा भवंति।
-जिन. चूर्णि, पृ. १७५ (ङ) ...कवाडं दारप्पिहाणं तं ण पणोलेज्जा, तत्थ त एव दोसा, यंत्रे य सत्तवहो । –अ. चू. पृ. १०४ ३३. (क) भिक्खायरियाए पविद्वेण वच्चमुत्तं न धारयव्वं, किं कारणं ? मुत्तनिरोधे चक्खुबाधाओ आभवंति, वच्च निरोहे य तेयं जीवियमवि रुंधेजा, तम्हा वच्चमुत्तनिरोधो न कायव्वो त्ति।
-जिन. चूर्णि, पृ. १७५ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १६५ (क) प्रासुकं प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः ।
—हारि. टीका, पत्र १८१ (ख) प्रासुकं बीजादिरहितम् ।
—हारि. टीका, पृ. १७८ ३५. (क) जओ भिक्खा निक्कालिज्जइ तं तमसं, तत्थ अचक्खुविसए पाणा दुक्खं पच्चुवेक्खिजति त्ति काउं नीयदुवारे तमसे कोट्ठओ वजेयव्वो ।
-जिन. चूर्णि, पृ. १७५ (ख) ईर्याशुद्धिर्नभवति ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १६७ ३६. (क) संपातिमसत्तविराहणत्थं परितावियाओ वा आउक्कायो त्ति काउं वजेजा। -जिन. चूर्णि, पृ. १७६ (ख) उवलित्तमेत्ते आउक्कातो अपरिणतो, निस्सरणं वा दायगस्स होज्जा, अतो तं परिवज्जए।
-अगस्त्यचूर्णि, पृ. १०५ (ग) संयमात्मविराधनापत्तेरिति।
-हारि. टीका, पृ. १६७