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दशवकालिकसूत्र भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु की खड़े रहने की भूमि सीमा : विधि-निषेध– आहार के लिए प्रवेश करने के बाद साधु गृहस्थ के चौके में कहां तक जाए, इसके विधि-निषेध-नियम प्रस्तुत गाथा (२४) में दिये गये हैंअतिभूमि में न जाए-गृहस्थ के द्वारा भोजनगृह में भिक्षाचरों के प्रवेश की वर्जित या अननुज्ञात भूमि अतिभूमि कहलाती है। सभी गृहस्थों की एक-सी मर्यादा नहीं होती, इसलिए साधु-साध्वी को यह विवेक स्वयं करना होगा कि किस गृहस्थ के यहां रसोड़े में कितनी दूर तक जाने की भूमिसीमा है ? यह निर्णय साधु-साध्वी को तद्देश प्रसिद्ध देशाचार, शिष्टाचार, कुलाचार, जातिसंस्कार, ऐश्वर्य, भद्रक-प्रान्तक आदि गृहस्थों की अपेक्षा से करना चाहिए। जहां तक दूसरे भिक्षाचर जाते हैं, तथा जहां तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, वहां तक की भूमि को कुलभूमि कहते हैं । अतः साधु-साध्वी इस प्रकार कुलभूमि का निर्णय करके वहां तक ही जाएं। अन्यथा चौके के अत्यन्त निकट चले जाने पर उनके प्रति अप्रीति या शंका उत्पन्न हो सकती है। • मितभूमि में भी कहां खड़ा हो, कहां नहीं ?– गृहस्थ द्वारा अनुज्ञात या अवर्जित मितभूमि में जाकर साधु कैसे और कहां खड़ा रहे, कहां नहीं ? इसका विवेक प्रस्तुत दो गाथाओं (२४-२५) में दिया गया है। मितभूमि में भी साधु जहां-तहां खड़ा न होकर इस बात का उपयोग लगाए कि वह कहां खड़ा हो, कहां नहीं ? वह उस भूभाग का सर्वेक्षण करे कि जहां खड़े रहने से संयम में विघात न हो और शासन की हीलना न हो।"
चार प्रकार के भूभाग में खड़े रहने का निषेध- साधु को मर्यादित मितभूमि में भी चार भूभागों (स्थानों) में खड़ा नहीं रहना चाहिए (१) सिणाणस्स संलोग, (२) वच्चस्स संलोगं, (३) दग-मट्टिय-आयाणं और (४) बीयाणि-हरियाणि य । चारों की व्याख्या 'संलोक' शब्द का सम्बन्ध स्नान और वर्चस् दोनों के साथ हैं। वर्चस् का अर्थ है मल-मूत्रविसर्जन शौचक्रिया। तात्पर्य यह है कि जहां खड़ा होने से मुनि को स्नान करती हुई या मल-मूत्रविसर्जन करती हुई महिला या सामने ही मल-मूत्र पड़ा दिखाई दे अथवा वह स्नानगृह या शौचालय से साधु को देख सके, उस भूमि भाग में खड़ा न हो। तीसरा निषेध है—जंगल या खान से लाई हुई सचित्त मिट्टी और सचित्त पानी जिस मार्ग से लाया जाता है, उस मार्ग पर खड़ा न हो तथा चौथा निषेध है—जहां चारों ओर बीज या हरी वनस्पति बिखरी हुई हो, या पैरों के नीचे रौंदी जाने की संभावना हो ऐसी जगह भी मुनि खड़ा न हो, क्योंकि इन दोनों प्रकार के स्थानों में खड़े रहने से अहिंसाव्रत की विराधना होगी। ४०. (क) "भिक्खयरभूमि-अतिक्कणमतिभूमी तं ण गच्छेज्जा ।'..
-अग. चूर्णि, पृ. १०६ (ख) अतिभूमिं न गच्छेद्-अननुज्ञातां गृहस्थैः । यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः । —हारि. वृत्ति, पत्र १६८ (ग) किं पुण भूमिपरिमाणं ?....तं विभव-देसायार-भद्दग-पंतगादीहिं, 'कुलस्स भूमिं णाऊण' पुव्वपरिक्कमणेणं अण्णे वा भिक्खायरा जावतियं भूमिमुपसरंति एवं विण्णातं ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. १०६ (घ) मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् (प्रविशेत्) यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायेत, इति सूत्रार्थः । —हारि. टी., पत्र १६८
(ङ) मितं भूमिं परक्कमे बुद्धीए संपेहितं सव्वदोससुद्धं त प्रतियं पविसेज्जा । -चू., पृ. १०६ ४१. तत्थेति ताए मिताए भूमीए उवयोगो कायव्वो पंडिएण, कत्थ ठातियव्वं, कत्थ न वेत्ति । तत्थ ठातियव्वं जत्थ इमाई न दीसंति ।
-जिन. चूर्णि, पृ. १७७ . (क) 'वच्चं नाम जत्थ वोसिरंति कातिकाइसन्नाओ ।'
-जिन. चूर्णि, पृ. १७७ (ख) 'वच्चं अमेझं तं जत्थ ।'
-जिन. चूर्णि, पृ. १७७ (ग) 'संलोगो-जत्थ एताणि आलोइजंति, तं परिवज्जए ।'