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________________ १५८ दशवकालिकसूत्र भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु की खड़े रहने की भूमि सीमा : विधि-निषेध– आहार के लिए प्रवेश करने के बाद साधु गृहस्थ के चौके में कहां तक जाए, इसके विधि-निषेध-नियम प्रस्तुत गाथा (२४) में दिये गये हैंअतिभूमि में न जाए-गृहस्थ के द्वारा भोजनगृह में भिक्षाचरों के प्रवेश की वर्जित या अननुज्ञात भूमि अतिभूमि कहलाती है। सभी गृहस्थों की एक-सी मर्यादा नहीं होती, इसलिए साधु-साध्वी को यह विवेक स्वयं करना होगा कि किस गृहस्थ के यहां रसोड़े में कितनी दूर तक जाने की भूमिसीमा है ? यह निर्णय साधु-साध्वी को तद्देश प्रसिद्ध देशाचार, शिष्टाचार, कुलाचार, जातिसंस्कार, ऐश्वर्य, भद्रक-प्रान्तक आदि गृहस्थों की अपेक्षा से करना चाहिए। जहां तक दूसरे भिक्षाचर जाते हैं, तथा जहां तक जाने में गृहस्थ को अप्रीति न हो, वहां तक की भूमि को कुलभूमि कहते हैं । अतः साधु-साध्वी इस प्रकार कुलभूमि का निर्णय करके वहां तक ही जाएं। अन्यथा चौके के अत्यन्त निकट चले जाने पर उनके प्रति अप्रीति या शंका उत्पन्न हो सकती है। • मितभूमि में भी कहां खड़ा हो, कहां नहीं ?– गृहस्थ द्वारा अनुज्ञात या अवर्जित मितभूमि में जाकर साधु कैसे और कहां खड़ा रहे, कहां नहीं ? इसका विवेक प्रस्तुत दो गाथाओं (२४-२५) में दिया गया है। मितभूमि में भी साधु जहां-तहां खड़ा न होकर इस बात का उपयोग लगाए कि वह कहां खड़ा हो, कहां नहीं ? वह उस भूभाग का सर्वेक्षण करे कि जहां खड़े रहने से संयम में विघात न हो और शासन की हीलना न हो।" चार प्रकार के भूभाग में खड़े रहने का निषेध- साधु को मर्यादित मितभूमि में भी चार भूभागों (स्थानों) में खड़ा नहीं रहना चाहिए (१) सिणाणस्स संलोग, (२) वच्चस्स संलोगं, (३) दग-मट्टिय-आयाणं और (४) बीयाणि-हरियाणि य । चारों की व्याख्या 'संलोक' शब्द का सम्बन्ध स्नान और वर्चस् दोनों के साथ हैं। वर्चस् का अर्थ है मल-मूत्रविसर्जन शौचक्रिया। तात्पर्य यह है कि जहां खड़ा होने से मुनि को स्नान करती हुई या मल-मूत्रविसर्जन करती हुई महिला या सामने ही मल-मूत्र पड़ा दिखाई दे अथवा वह स्नानगृह या शौचालय से साधु को देख सके, उस भूमि भाग में खड़ा न हो। तीसरा निषेध है—जंगल या खान से लाई हुई सचित्त मिट्टी और सचित्त पानी जिस मार्ग से लाया जाता है, उस मार्ग पर खड़ा न हो तथा चौथा निषेध है—जहां चारों ओर बीज या हरी वनस्पति बिखरी हुई हो, या पैरों के नीचे रौंदी जाने की संभावना हो ऐसी जगह भी मुनि खड़ा न हो, क्योंकि इन दोनों प्रकार के स्थानों में खड़े रहने से अहिंसाव्रत की विराधना होगी। ४०. (क) "भिक्खयरभूमि-अतिक्कणमतिभूमी तं ण गच्छेज्जा ।'.. -अग. चूर्णि, पृ. १०६ (ख) अतिभूमिं न गच्छेद्-अननुज्ञातां गृहस्थैः । यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः । —हारि. वृत्ति, पत्र १६८ (ग) किं पुण भूमिपरिमाणं ?....तं विभव-देसायार-भद्दग-पंतगादीहिं, 'कुलस्स भूमिं णाऊण' पुव्वपरिक्कमणेणं अण्णे वा भिक्खायरा जावतियं भूमिमुपसरंति एवं विण्णातं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १०६ (घ) मितां भूमिं तैरनुज्ञातां पराक्रमेत् (प्रविशेत्) यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायेत, इति सूत्रार्थः । —हारि. टी., पत्र १६८ (ङ) मितं भूमिं परक्कमे बुद्धीए संपेहितं सव्वदोससुद्धं त प्रतियं पविसेज्जा । -चू., पृ. १०६ ४१. तत्थेति ताए मिताए भूमीए उवयोगो कायव्वो पंडिएण, कत्थ ठातियव्वं, कत्थ न वेत्ति । तत्थ ठातियव्वं जत्थ इमाई न दीसंति । -जिन. चूर्णि, पृ. १७७ . (क) 'वच्चं नाम जत्थ वोसिरंति कातिकाइसन्नाओ ।' -जिन. चूर्णि, पृ. १७७ (ख) 'वच्चं अमेझं तं जत्थ ।' -जिन. चूर्णि, पृ. १७७ (ग) 'संलोगो-जत्थ एताणि आलोइजंति, तं परिवज्जए ।'
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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