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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा १५७ (१) असंसक्तावलोकन - (१) आसक्त दृष्टि से न देखे, अर्थात् — मुनि स्त्री की दृष्टि में दृष्टि गड़ा कर न देखे, स्त्री के अंगोपांगों को न देखे। ये दोनों आसक्त दृष्टि के प्रकार हैं। इसका अर्थ यों भी किया गया है— गृहस्थ के यहां रखे हुए आहार, वस्त्र तथा अन्य श्रृंगारप्रसाधन आदि की चीजों को आसक्तिपूर्वक न देखे। इस प्रकार के आसक्तिपूर्वक दृष्टिपात के निषेध के मुख्य कारण तीन बताए हैं- (१) ब्रह्मचर्यव्रत की विराधना - क्षति, (२) लोकापवाद— श्रमण को इस प्रकार टकटकी लगाकर देखने पर उसे कामविकारग्रस्त मानते हैं; (३) मानसिक रोगोत्पत्ति। अगस्त्यचूर्णि में इसका अर्थ किया गया है—–—मुनि जहां खड़ा रह कर आहार ले और दाता जहां से आकर भिक्षा दे, ये दोनों स्थान असंसक्त (त्रस आदि जीवों से असंकुल) होने चाहिए। इस दृष्टि से यहां मूल में बताया गया है— मुनि असंसक्त स्थान का अवलोकन करे । ( २ ) नातिदूरावलोकन –—–—मुनि वहीं तक दृष्टिपात करे, जहां तक भिक्षा के लिए देय वस्तुएं रखी और उठाई जाएं, उससे आगे लम्बी दृष्टि न डाले। घर में दूर-दूर तक रखी वस्तुओं पर दृष्टिपात करने से साधु के प्रति शंका हो सकती है, अतिदूरावलोकन का निषेध किया गया है। अगस्त्यचूर्णि में इसका अर्थ किया गया है— मुनि अतिदूरस्थ प्राणियों को नहीं देख सकता इसलिए वैकल्पिक अर्थ हुआ— भिक्षा देने के स्थान से अतिदूर रह कर अवलोकन नहीं करे—अर्थात् खड़ा न रहे. । (३) उत्फुल्लनयनानवलोकन – दो अर्थ – (१) विकसित नेत्रों से ( आंखें फाड़ कर न देखे, (२) उत्सुकतापूर्ण नेत्रों से न देखे। इस प्रकार गृहस्थ के घर में यत्र-तत्र पड़े हुए भोग्य पदार्थ, शय्यादि सामग्री, स्त्री, आभूषण आदि को आंखें फाड़-फाड़ कर देखने से—– साधु के प्रति लघुता या भोगवासनाग्रस्तता का भाव उत्पन्न हो सकता है । ३८ वाणीसंयम भिक्षा के लिए प्रवेश करने पर यदि दाता कुछ भी न दे, थोड़ा दे, नीरस वस्तु दे, अथवा कोई कठोर वचन कह दे, तो भी साधु को उसके लिए बहस, अपशब्द प्रयोग अथवा दीनवचन- प्रयोग न करते हुए चुपचाप बिना कुछ कहे, वहां से निकल जाना चाहिए । ३९ ३८. ३९. (क) 'असंसत्तं पलोएज्जा नाम इत्थियाए दिट्ठि न बंधेज्जा, अहवा अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिट्ठीए न जोएज्जा ।' किं कारणं ? जेण तत्थ बंभवयपीला भवइ, जोएंतं वा दट्ठूण अविरयगा उड्डाहं करेज्जापेच्छह समणयं सवियारं । जिनदास चूर्णि, पृ. १७६ (ख) 'रागोत्पत्ति - लोकोपघात-प्रसंगात् ।' — हारि. वृत्ति, पृ. १६८ (ग) तावमेव पलोएइ, जाव उक्खेव निक्खेवं पासई । तओ परं घरकोणादी पलोयंतं दट्ठूण संका भवति । किमेस चोरो वा पारदारिओ वा होज्जा ? एवमादि दोसा भवंति । — जिन. चूर्णि, पृ. १७६ — हारि. वृत्ति, पृ. १६८ —अ. चू., पृ. १०६ जिन. चूर्णि, पृ. १७६ (च) उप्फुल्लं नाम विगसिएहिं णयणेहिं इत्थीसरीरं रयणादी वा ण णिज्झाइयव्वं । (छ) ....न विणिज्झाए त्ति, न निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्टकल्याण इति लाघवोत्पत्तेः । हारि. वृत्ति, पृ. १६८ (क) दिण्णे परियंदणेण अदिण्णे रोसवयणेहिं .... एवमादीहि अजंपणसीलो अयंपिरो एवंविधो पियट्टेज्जा । (ख) तथा निवर्त्तेत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन्- दीनवचनमनुच्चारयनिति । (घ) नाति दूरं प्रलोकयेत् — दायकस्यागमनमात्रदेशं प्रलोकयेत् । (ङ) तं च णातिदूरावलोयए अतिदूरत्थो पिपीलिकादीणि ण पेक्खति । - अगस्त्य चूर्णि, पृ. १०६ — हारि. वृत्ति, पृ. १६८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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