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________________ १५६ दशवैकालिकसूत्र आदि को हटाने से शरीर और संयम दोनों की विराधना और शासन की लघुता होने की संभावना है। एलगं : एलक : दो अर्थ (१) चूर्णिकार के अनुसार—बकरा। (२) टीकाकार आदि के अनुसार भेड़.३७ १०५. असंसत्तं पलोएजा, नाइदूरावलोयए । उप्फल्लं न विणिज्झाए, नियट्टेज अयंपिरो ॥ २३॥ १०६. अइभूमिं न गच्छेजा, गोयरग्गंगओ मुणी । कुलस्स भूमिं जाणित्ता, मियं भूमिं परक्कम्मे ॥ २४॥ १०७. तत्थेव पडिलेहेजा भूमिभागं वियक्खणो । सिणाणस्स य वच्चस्स संलोगं परिवजए ॥ २५॥ १०८. दग-मट्टिय-आयाणे बीयाणि हरियाणि य । परिवजंतो चिट्ठेजा सव्विंदियसमाहिए ॥ २६॥ [१०५] (गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट भिक्षु) आसक्तिपूर्वक (कुछ भी—आहार या किसी सजीव-निर्जीव पदार्थ को) न देखे, अतिदूर (दृष्टि डाल कर) न देखे, उत्फुल्ल दृष्टि से (आंखें फाड़-फाड़ कर) न देखे, तथा भिक्षा प्राप्त न होने पर बिना कुछ बोले (वहां से) लौट जाए ॥ २३॥ ___[१०६] गोचराग्र के लिए (घर में) गया हुआ मुनि अतिभूमि (गृहस्थ के चौके में मर्यादित की गई भूमि का अतिक्रमण करके आगे) न जाए, (किन्तु उस) कुल (घर) की मर्यादित भूमि को जान कर मित (मर्यादित या अनुज्ञात) भूमि तक ही जाए (अर्थात् —परिमित स्थान तक जाकर ही खड़ा रहे) ॥ २४॥ [१०७] विचक्षण साधु वहां (मितभूमि में) ही उचित भूभाग का प्रतिलेखन करे, (वहां खड़े हुए) स्नान और शौच के स्थान की ओर दृष्टिपात न करे ॥ २५॥ [१०८] सर्वेन्द्रिय-समाहित भिक्षु (सचित्त) पानी और मिट्टी लाने के मार्ग तथा बीजों पर हरित (हरी) वनस्पतियों को वर्जित करके खड़ा रहे ॥ २६॥ विवेचन -गोचरी के लिए प्रविष्ट मुनि का कायचेष्टासंयम- प्रस्तुत चार गाथासूत्रों (सूत्र १०५ से १०८ तक) में भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनि को कहां, कैसे, किस प्रकार के इन्द्रिय संयम के साथ खड़ा रहना चाहिए? इससे सम्बन्धित विधि-निषेध का प्रतिपादन किया गया है। ___ भिक्षा के लिए घर में प्रविष्ट मुनि का दृष्टिसंयम एवं वाणीसंयम- दृष्टिसंयम के लिए यहां तीन पद दिए हैं। इन तीनों की व्याख्या इस प्रकार है ३७. (क) एलओ-छागो । -जिन. चूर्णि, पृ. १७६ (ख) एडकं-मेषम् । -हारि. वृत्ति, पृ. १६७ (ग) एत्थ पच्चवाता-एलतो सिंगेण फेट्टाए वा आहणेज्जा । दारतो खलिएण दुक्खवेजा, सयणो वा ते अपत्तिय उप्फोसण-कोउयादीणि पडिलग्गे वा गेण्हणातिपसंगं वा करेज्जा । सुणतो खाएज्जा । वच्छतो वितत्थो बंधच्छेय-भायणातिभेदं करेजा । विऊहणे वि एते चेव (दोसा) सविसेसा । -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १०५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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