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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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ऐसे नीचे द्वार वाले घोर अन्धकारयुक्त कोठे (कमरे) को (गोचरी के लिए प्रवेश करना) वर्जित कर दे ॥ २० ॥ [१०३] जिस कोठे (कमरे) में (अथवा कोष्ठकद्वार पर ) फूल, बीज आदि बिखरे हुए हों, तथा जो कोष्ठक (कमरा) तत्काल (ताजा) लीपा हुआ, एवं गीला देखे तो (उस कोठे में भी प्रवेश करना) छोड़ दे ॥ २१ ॥ [१०४] संयमी मुनि, भेड़, बालक, कुत्ते या बछड़े को (बीच में बैठा हो तो) लांघ कर अथवा हटां कर कोठे (कमरे) में (भिक्षा के लिए) प्रवेश न करे ॥ २२ ॥
विवेचन – निषिद्ध एवं विहित गृह तथा प्रकोष्ठ— प्रस्तुत ६ सूत्र - गाथाओं (९९ से १०४ तक) में कुछ कुलों (घरों) में तथा विहित घरों के कमरों में प्रवेश का निषेध किया है, जबकि कुछ कुलों में प्रवेश का विधान किया है। प्रीतिकर कुल में प्रवेश का विधान किया गया है।
निषिद्ध कुल तथा प्रकोष्ठ ये हैं
१. प्रतिक्रुष्ट कुल में
२.
मामक कुल में
३. अप्रीतिकर कुल में
आज्ञा लिये बिना सन का पर्दा हटा कर
बिना वस्त्रादि से ढंके द्वार को खोल कर
६.
आज्ञा लिये बिना कपाट खोल कर
७. आंखों से प्राणी न देखने वाले, नीचे द्वार के अन्धेरे कोठे (कमरे) में
८. जहां फूल, बीज आदि बिखरे हों, उस कोठे में
२८.
४.
५.
९. तत्काल लीपे हुए या पानी से भीगे हुए कोठे में
१०. भेड़, बालक, कुत्ते या बछड़े को द्वार पर से हटा कर या इन्हें लांघ कर कोठे में ।
प्रतिक्रुष्ट कुल : अर्थ, व्याख्या एवं आशय प्रतिक्रुष्ट शब्द का अर्थ है– (१) निषिद्ध, (२) निन्दित, (३) गर्हित और (४) जुगुप्सित । प्रतिक्रुष्ट दो प्रकार के होते हैं— अल्पकालिक और " यावत्कालिक । मृतक, सूतक आदि वाले घर थोड़े समय के लिए (अल्पकालिक) प्रतिक्रुष्ट हैं और डोम, मातंग आदि के घर यावत्कालिक (सदैव ) प्रतिक्रुष्ट हैं। आचारांगसूत्र में कुछ अजुगुप्सित एवं अगर्हित कुलों के नामों का उल्लेख करके 'ये और ऐसे ही अन्य कुल' कहकर अतिदेश कर दिया है । परन्तु जुगुप्सित और गर्हित कुल कौन-से हैं ? उनकी पहिचान क्या है ? यह आगमों में स्पष्टतः नहीं बताया। यद्यपि निशीथसूत्र में जुगुप्सनीय कुल से भिक्षा लेने का प्रायश्चित्त बताया है। टीकाकार जुगुप्सित और गर्हित कुल से भिक्षा लेने पर जैनशासन की लघुता होना बताते हैं ।" वर्तमान में प्रतिक्रुष्ट
२७. (क) पडिकुटुं निंदितं तं दुविहं इत्तरियं आवकहियं च । इत्तरियं मयगसूतगादि, आवकहितं चंडालादी ।
— अगस्त्य चूर्णि पृ. १०४ — हारि. वृत्ति, पत्र १६६
(ख) एतन्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् ।
(ग) आचारांग चू., १/२३
(क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २१३ - २१४ (ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी), पृ. १६३
(घ) निशीथ. १६ / २७